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भोजपुरी कहानिया

नई नौकरी और भोजन बनाने की समस्या

नई नौकरी और भोजन बनाने की समस्या
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नौकरी के शुरूआती दिन चुनौती से भरे थे। घर और घरवालों से दूर रहने का पहला अनुभव था।मुझे खाना बनाने का विज्ञान और कपड़े धोने की कला नही आती थी। पैंट-शर्ट तो रो-धोकर धो देता था पर चादर धोना थोड़ा मुश्किल था। तो मैंने एक फेरीवाले से इकट्ठे 6 चादरे खरीद ली। प्लान ये था कि जब तक ये गंदी होगी तब तक गर्मी की छुट्टियाँ हो जाएँगी तो इन्हें लेकर घर चला जाऊँगा।

मुख्य समस्या भोजन की थी।खाना बनाना मेरे लिए कठिनतम काम था।स्वास्थ्य कारणों से रोज़ाना दोनों टाइम बाहर खाना उचित भी न था। किसी तरह इधर-उधर मुंह मार के काम चल रहा था। इस बीच मैंने एक सहकर्मिणी से घनिष्ठता बढ़ा ली थी। वो अपने लिए स्वादिष्ट भोजन लाती थी। उसी में मेरा भी काम चलने लगा। उनके पूड़ी-पराठों के बदले में मेरे पास देने के लिए प्रेम के सिवा कुछ न था। खैर दिन का तो किसी तरह जुगाड़ हो गया था पर मेरी रातें स्वादहीन थी। एक-दो बार मैंने रोटी बनाने की कोशिश की थी पर रोटी ऐसी बनती थी जैसे उसे डरा-धमका कर गोल किया गया हो।दाल ठीक-ठाक बना लेता था पर उसे सिर्फ मैं ही खा सकता था।दूसरा कोई व्यक्ति तो उसे दाल मानने से भी इनकार कर देता।

फिर मैंने एक नायाब जुगत ढूंढ़ निकाला। मैं शाम को अपने किसी सहकर्मी के घर चला जाता था और तब तक बैठा रहता जब तक वो खाने का न पूछ लेते। बस अपना काम चलने लगा।

एक दिन यूँ हुआ कि मैं एक दोस्त के घर भोजन की तलाश में गया था। घर के चारों पुरुष IPL मैच देख रहे थे। मुझे देख कर उनलोगों के चेहरे पर तनाव सा छा गया। माहौल को हल्का करने के लिए मैंने कहा---"मैंने भी बचपन में खूब क्रिकेट खेला है। अगर ICC वाले मेरे गांव के मैदान में हुए मैचों को टेस्ट मैच का दर्ज़ा दे दें तो मेरे नाम सचिन से भी ज़्यादा रन होंगे।"

इतना बोलकर मैंने दाँत फाड़ दिए। मैं सोच रहा था कि मैंने कोई बहुत बड़ी मज़ाकिया बात बोल दी है और सभी लोग अभी हँस पड़ेंगे। पर सबने मेरी ओर देखा और मुँह बिचका लिया।मज़ाक में असफल होना बहुत बड़ी असफलता होती है। थोड़ी देर बाद घर की मालकिन ने अपने ससुर को आवाज़ दी----"पापा, ज़रा सुनिए।" पापा अंदर गए। 15 मिनट बाद गृहिणी ने अपने पति को बुलाया---- "अजी, सुनते है।" इस तरह एक-एक करके घर के सभी सदस्य अंदर के कमरे में जाते और थोड़ी देर बाद हाथ-मुँह पोछते और डकार मारते बाहर आ जाते थे। मैं इस कुटिल चाल को समझ गया। ये लोग सुनने के बहाने से अंदर जाकर खाना खा रहे थे। व्यथित होकर मैंने उस बंगाली बोउ से बोल दिया--- " हमको कब सुनाइयेगा। हम सुनने ही तो आये है।"
गृहस्वामिनी ने मुझे घूरा और थाली में दो रोटी लेकर आई। रोटी में चिकनाहट भी थी। पता नही घी था या ग्रीस था। खैर उन्होंने थाली लगभग पटकते हुए ज़हरीली मिठास के साथ कहा--- "ये लीजिये, यही बची है। गाय के लिए निकाल के रखे थे।"

"और अब बैल को दे रही हो।" मैंने मन ही मन में सोचा।

मैं घर से बाहर निकल आया। पर मुझे अभी और बेइज़्ज़त होना बदा था।अगली शाम मैं फिर उनके घर गया। घण्टी बजाई, दरवाज़ा पीटा, चीखा-चिल्लाया। पर इस बार वज्र-किवाड़ नही खुले। अन्दर टीवी पर तेज़ आवाज़ में गाना बज रहा था--- जोदि तोर डाक शुने ना आशे तबे एकला चोलो रे।

मैं बाज़ार गया। बियर की कुछ बूंदे आत्मार्पित की। एक बढ़िया रेस्टोरेंट में घटिया खाना खाया और देर रात तक यू-ट्यूब और गूगल पर " खाना बनाने के आसान तरीके" ढूंढ़ता रहा।


नीरज मिश्र
गोपालगंज बिहार
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