फागुन के महीने में मठाधीशों का युद्ध, पकौड़े का मतलब सिर्फ पकौड़ा ?
BY Anonymous6 Feb 2018 12:23 PM GMT

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Anonymous6 Feb 2018 12:23 PM GMT
फागुन के महीने में मठाधीशों का युद्ध भी देवर-भौजाई के युद्ध सा आनंद देता है। यूँ तो मुझे युद्ध बारहों महीने पसन्द है, पर शर्त बस यह है कि युद्ध दूसरे के घर में हो। सरहद पर किसी दूसरे का बेटा मरे तो भारत माता की जय के नारे लगते हैं, पर अपना बेटा बलि चढ़े तो मोदी गाली खाते हैं। युद्ध दूसरे के घरों में ही उचित होता है। पड़ोस में हल्की सी लहर भी उठे तो मैं महागुरु फणीश्वर नाथ रेणु जी के महामंत्र "नारद नारद" का जाप करने लगता हूँ, ताकि युद्ध जोरदार छिड़े। मेरे पापा तो हप्ते-दस दिन पर पड़ोस में किसी पति पत्नी के बीच झगड़ा लगा के आनंद लेते थे, मैं स्वतः स्फूर्त झगड़े में आनंद लेता हूँ।
वैसे जिस पकौड़े को लेकर युद्ध छिड़ा है, वह ससुर है ही झगराह। आप दस आदमी के बीच मे एक प्लेट रख दीजिए तो कोई जल्दी उठाएगा नहीं। सब समझते हैं कि पहला पकौड़ा उठाने वाले पर लालची होने का ठप्पा लग जायेगा। सब इस हरामखोर पकौड़े से डरते हैं। अंतिम पकौड़ा भी कोई जल्दी नहीं उठाता।
वैसे इस बार युद्ध तनिक रसगर है। दोनों पक्षों के तर्क गब्बर की तरह जब्बर हैं। मैं पहले पक्ष के साथ भी हूँ। सरकार को सबको फर्स्ट क्लास की नौकरी देनी ही चाहिए, चाहें कहीं से दे। हां यह अलग बात है कि हर साल पास हो रहे करोड़ों यशश्वी युवाओं को नौकरी देने में किसी भी सरकार का भकन्दर उपट सकता है। उसपर मजा यह कि देश के असंख्य महानुभाव बच्चा पैदा करने में जानवरों का रिकार्ड भी तोड़ रहे हैं। कुछ तो तीन महीने में एक की रिकार्ड दर से भी प्रोडक्शन करने की योग्यता रखने वाले हैं। हमनें तो कई ऐसे उदाहरण भी देखें हैं जिसमें सास और तीन तीन बहुएं एक ही साथ एक ही एम्बुलेंस से सरकारी अस्पताल में जा कर यशश्वी बालक पैदा करती हैं, और पन्द्रह सौ प्रति बच्चे की दर से कुल छह हजार की पुरस्कार राशि ले कर वापस लौटती हैं। बीर माँ-बाप बिस्कुट फैक्ट्री की भांति धड़ धड़ धड़ धड़ प्रोडक्शन करते हैं, और सरकारी स्कूल के कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक उन्हें पढ़ा के पकापक कर देते हैं। अब बेचारी सरकार उन्हें कहाँ से पौने तिरालीस हजार साढ़े छह सौ पौने उनतालीस रुपये तनख्वाह वाली नौकरी दे?
वैसे मैं दूसरे पक्ष के साथ भी हूँ। इस हरामखोर मास्टर की इतनी औकात कि सरकार से सवाल करे? मूर्ख यह बात कैसे भूल गया कि लोकतंत्र में स्वतंत्र विचार रखने की मनाही होती है। चार अच्छी कहानियां और लेख लिख लेने से कोई विद्वान हो जाता है भला? लोकतंत्र में तो विद्वान होने के लिए किसी न किसी पार्टी का नारा लगाना पड़ता है। तुलसी बाबा पहले ही कह गए "ज्ञानी वही जो गाल बजावा"। बिना गाल बजाए कोई ज्ञानी कैसे हो सकता है भला, और जब ज्ञानी नहीं तो नौकरी माँगने का अधिकार कैसे मिल गया? मैं सबसे मांग करूँगा कि इस फागुन में इस मास्टर की सारी मास्टरी उतार दें, ताकि भविष्य में भी कोई कमबख्त आम आदमी सरकार से सवाल पूछने का साहस न कर सके।
वैसे सच कहूं तो मैं इन दोनों के साथ नहीं हूँ। मेरे हिसाब से सरकारी नौकरी एक किस्म का छलावा भर है। मुझे नहीं लगता कि कोई भी सरकारी नौकर (कुछ मलाईदार पदों के मालिकों को छोड़ कर) दाल भात तियना से आगे सोच पाता है। मैं अपने ही बाजार में जेनरल स्टोर की गुमटी चलाने वाले दुकानदार को तीन से चार हजार रोज की कमाई करते देखता हूँ, तो आठ महीने पर मिलने वाली अपनी तेरह हजार की सरकारी तनख्वाह को याद करके कुहुक के रह जाता हूँ। वहीं तीन साल पहले खुले मेरे प्राइवेट स्कूल में तेरह लोगों को मिला रोजगार मुझमें बड़पन का भाव भरता है। मेरा बेटा अभी तीन साल का है पर अभी से लगा हूँ कि उसे नौकरी न करनी पड़े, न सरकार की न हीं किसी पूंजीपति की।
सरकारी और प्राइवेट दोनों नौकरियों का मुझे अनुभव है इसलिए जानता हूँ कि नौकरी में आपको वेतन चाहे जितना मिल जाये, रहते आप नौकर ही हैं। सो नौकरी अब मुझे लालायित नहीं करती। मैं कभी किसी प्रतियोगिता परीक्षा का फॉर्म नहीं भरता, क्योंकि मैं अपनी दशा से संतुष्ट हूँ। यदि ईश्वर ने चाहा तो पाँच सात में इस तेरह हजारी नौकरी को लात मार दूंगा। मेरे लिए नौकरी से अच्छी परचून की दुकान है। ब्यवसाय में यह स्वतंत्रता तो है ही कि आप अपनी योग्यता के लायक व्यवसाय चुन सकते हैं। पकौड़े का मतलब सिर्फ पकौड़ा थोड़े है।
ओय धत तेरे की, बात बहक गयी।
खैर! उम्मीद है कि यह युद्ध और रसगर होगा। राणी-भतारकाटी से शुरू हुई बात " तें त तिवरिया के साथे तीन तीन बेर धराइल रहले" तक जरूर पहुँचेगी। आशा है रस जरूर बरसेगा।
तबतक के लिए, लाल सलाम
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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