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प्रेम पकौड़ा......रिवेश प्रताप सिंह

प्रेम पकौड़ा......रिवेश प्रताप सिंह
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फरवरी के 'प्रेम सप्ताह उत्सव' में, अचानक पकौड़े का प्रवेश..कोई संयोग है या साजिश यह समझना बहुत मुश्किल है.. एक तरफ जहाँ प्रेमी-प्रेमिका गुलाब की टहनियाँ पकड़ने को आतुर हों वहीं अचानक से उनके हाथ में पकौड़े छानने वाला छनौटा थमाया जाना थोड़ा असंगत और असहज करने वाला है। यह बिल्कुल यक्ष प्रश्न है कि यह वक्त प्रेम की जलेबी छानने का है या वास्तव में जीवन के लिए पकौड़े.....

वैसे यदि हम प्रेम दिवस पर पकौड़े का प्रवेश, एक सुखद संयोग माने एवं एक निष्पक्ष मूल्यांकन करें तो पायेंगे कि एक पकौड़े और प्रेमी के जीवन यात्रा में एक बड़ा साम्य है। गर्म तेल में पकौड़े की छटपटाहट और प्रेम में किसी प्रेमी की तड़प बिल्कुल एक ही जैसी होती है..दोनों ही एक कष्टसाध्य प्रक्रिया से गुजरते है..पकौड़ा न तो कड़ाही से कूदकर बाहर निकल पाता और न ही प्रेमी, प्रेम से... दोनों बराबर तड़पते हैं..फड़कते हैं। वैसे तड़पना एक आवश्यक शर्त भी है पकौड़ी और प्रेमी दोनों के लिये.. क्योंकि दोनों में रंग तभी उतरता है जब उनमें तड़प होती है, छटपटाहट होती है..

पकौड़े और प्रेमी दोनों को बनने की एक बड़ी शर्त यह भी है कि आप ऊपर से भले सख्त दीखते हो लेकिन आपको अन्दर से अपना रोम-रोम ढीला करके बैठना होता है। जब ऊपर का लेपन मुलायम हो और अन्दर एक सख्त जिस्म तो उसे पकौड़ी नहीं कही जाती। तेल में जलकर, तपकर जो ऊपर से सख्त, लेकिन भीतर ही भीतर घुटने टेक दे वह बनता है पकौड़ा। प्रेमी भी ऊपर से भले सख्त दिखे लेकिन अन्दर से जब उसका रेशा-रेशा रेशमी और मखमली हो जाये , घुटने टेककर बैठ जाये तब जाके वह पाता है एक प्रेमी का दर्जा....

आप जब पकौड़े बनने की प्रक्रिया को गौर से देखें तो आप पायेंगे कि कैसे विभिन्न जाति धर्म की सब्जियां एक ही लेप में लिपटकर जलते कड़ाहे में उतरती हैं और वहाँ अपना अस्तित्व भुलाकर आपस में लिपटती हैं, बिलखती हैं...एक जैसी स्वर्ण रूप धारण करतीं हैं और तब जाकर बनती और छनती हैं पकौड़ियाँ। वैसे ही जब एक प्रेमी-प्रेमिका अपने भीतर से बाहर तक प्रेम का लेपन कर हर बंधन से मुक्त हो दुनिया समाज के गर्म कड़ाहे में तैरते है तो वह एक दूजे की आत्मा में विलीन होकर एक दूसरे की नजरों में स्वर्ण जैसे चमक उठते बिल्कुल पकौड़े की तरह..

पकौड़े और प्रेमी दोनों के भीतर ऊष्मा या गर्मी का होना जरूरी है। यदि पकौड़ा गर्म न हो या प्रेमी में ऊष्मा न हो तो दोनों ही उपेक्षित और बेकार है.. उसी पकौड़े को इज्ज़त मिलती है जिसमें गर्माहट हो वैसे ही एक प्रेमी-प्रेमिका भी एक दूसरे के भीतर गर्माहट खोजते हैं... इसलिए पकौड़े से जीभ जलना और प्रेम में दिल जल जाना कबूल लेकिन इन दोनों की तासीर ठंडी हो यह बिल्कुल कबूल नहीं इसलिए दोनों के अन्दर झांकने पर एक आग होनी चाहिए...भाप उठनी चाहिए।

ऐसा भी नहीं की ठंडे पकौड़े और प्रेमी कूड़ेदान के हवाले हो जाते हैं लेकिन मुंह और दिल में उनकी जगह इसलिए ही है कि बड़ी मेहनत से तैयार किया है इसलिए बेमन से जबरदस्ती मुंह या दिल में ठूंसकर बैठा लिया जाता हैं।इसलिए जैसी गर्माहट आप पकौड़े में ढूंढते हैं वैसा ही सामने वाला आपके भीतर... वैसे गर्माहट इतनी भी न रहे कि पहले आपको किसी यंत्र से तोड़ा जाये फिर दर्जनों फूंक मारकर उस अवस्था पर लाया जाये जहाँ उसका और आपका जिह्वा एवं हृदय में प्रवेश संभव हो। लब्बोलुआब गर्म पकौड़े और प्रेम दोनों में हड़बड़ाहट घातक है इसलिए बचाकर, फूंककर, मिर्ची, मसाला जांचकर खाईये पकौड़े और उससे भी अधिक फूंककर थामिए प्रेम का निवाला..

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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