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भोजपुरी कहानिया

जिसकी आत्मा की तलहटी तक में कड़ुवाहट पालथी मारकर बैठा हो वो करेगा, प्रेम में 'मिठास का प्रतिनिधित्व'

जिसकी आत्मा की तलहटी तक में कड़ुवाहट पालथी मारकर बैठा हो वो करेगा, प्रेम में मिठास का प्रतिनिधित्व
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लोग बतावें हैं कि आज 'चाकलेट डे' है। जगह-जगह चाकलेट के विज्ञापन और स्टॉल इसके सम्मान में आगवानी भी कर रहे हैं। अब बताइए भला! जिसकी आत्मा की तलहटी तक में कड़ुवाहट पालथी मारकर बैठा हो अब वो करेगा, प्रेम में 'मिठास का प्रतिनिधित्व'....बताइये! कितने भारतीय विवाहोत्सवों में, स्वागत के दौरान मिष्ठान में एवं भोजन के उपरांत मीठे व्यंजनों में, आपने चाकलेट परोसते देखा ...किसके घर, अतिथि स्वागत में पानी के साथ प्लेट में चाकलेट भेजी जाती है.. मैं समझता हूँ कि.....न के बराबर।

मैं यह नहीं कहता कि आप मीठा मत खिलायें... लेकिन खिलाना ही हो तो चाकलेट ही क्यूँ....आंवले का मुरब्बा खिलाया जा सकता है, चम्मच लगाकर गाजर का हलुआ खिलाया जा सकता है। जब पूरा भारतीय आयुर्वेद आंवले के गुणगान से रंगा हो और फाल्गुन में आंवले से भी बाज़ार पटा हो.... तो खिलाइये न आंवले का मुरब्बा! अब यह न कह दिजियेगा कि आंवला कड़वा होता है.. क्योंकि चाकलेट को कड़वे से मीठा बनाने में जितने उपाय किये जाते हैं उतना आंवला को कर दीजिए तो लोगबाग समझ ही नहीं पायेंगे कि जो वो खा रहें हैं इसमें कहीं आंवला भी छिपा है।

वैसे इस मामले में अपनी कुछ अलग ही पीड़ा है। दरअसल बचपन से ही चाकलेट और मेरे बीच एक शीतयुद्ध जैसा चलता रहा है। आज की बात कुछ और है लेकिन दो-तीन दशक पहले मध्यमवर्गीय परिवार में चाकलेट खरीदना एक दुस्साहस भरा कदम था... मुझे यह भी कहने और स्वीकारने में तनिक भी संकोच नहीं कि चाकलेट और मेरी मुट्ठियों की हैसियत में एक बड़ा फर्क था.. बचपन में कभी मुट्ठी इतनी नहीं तनी कि मैं चाकलेट को ललकार सकूँ। वर्ष में एक दो बार इस हैसियत में भी आया भी लेकिन वर्ष भर चाकलेट के मूल्य से भयभीत बालक इतनी हिम्मत कहां से लाये भला,कि वो उसको ललकार लगाये जो उसे रोज मुझे ललकारता है। एक दूसरी बात यह कि जिस क्षण मैं वर्ष का सर्वाधिक धनी होने का उत्सव मना रहा हूँ तो क्यों भला उसके मायाजाल में फंसने जाऊँ जो मुझे पलभर में धरती पर खड़ा कर देगी। वैसे दो भाईयों के बीच एक साझा कार्यक्रम के तहत साझे में चाकलेट की खरीदारी अवश्य हुई...मुझे लगता है कि चाकलेट कम्पनियों को भी ऐसी साझेदारियाँ का एक पूर्वानुमान अवश्य था इसलिए उसने बराबर से उसे तोड़ने के लिये बहुत से सुलभ वर्ग बनाये, मुझे तो यह भी लगता है कि उसने यहाँ तक के भी बटवारे का ख्याल रखा कि चाहें तो आठ निवेशक एक साथ मिलकर एक चाकलेट खरीदें और बिना किसी विवाद के बराबर के आठ हिस्सो में बांटकर पिद्दी सी चाकलेट का आनन्द उठावें..

वार्षिक पिकनिक कार्यक्रम पर एक बड़े बजट के साथ निवेश का साहस भी पैदा होता था। उस वक्त खानपान में चाकलेट, एक बड़े निवेश के रूप में मेरे थैले और हृदय दोनों में वजन बढ़ाकर चलता था....यकीनन पूरे पिकनिक यात्रा में पूरी एक चाकलेट खत्म होने में पच्चीस किलोमीटर का रास्ता तो खत्म ही हो जाता था और पन्द्रह किलोमीटर अतिरिक्त, खाली रैपर को उलटते-पलटते निहारते... और दूसरा चाकलेट पूरी योजना के तहत बचाकर घर लौट आता था... एक-दो ऐसे भी परिचित थे जो उस दौरान थाईलैंड रहते थे.. जब वह वर्ष में भारत की धरती पर उतरते तो उनके हाथों में बच्चों को लुभावने वाली जो सबसे महत्वपूर्ण चीज़ होती वह थी कुछ विशिष्ट टाफियाँ या फिर दुर्लभ चाकलेट .. उसको थामने के बाद शरीर में सनसनी दौड़ जाती थी.. घंटों यह विचार करने में लग जाते थे कि इसे खाना ज्यादा श्रेयस्कर है या सहेज के रखना.. वैसे ऐसी ही दुर्लभ खाद्य सामग्रियां कुतर कर खायी जातीं हैं.. कुल मिलाकर चाकलेट और खुद में शुरु से इतनी दूरियाँ रहीं कि अब चाह कर भी दिल नहीं मिलते इससे...खरीदना और खाना एक औपचारिकता मात्र रह गया है।

हो सकता है कि मेरे मुख से निकले हुए शब्द चाकलेट के प्रति ईर्ष्या में उत्सर्जित हो रहें हों लेकिन यह भी सच है कि इस श्यामवर्णी कड़वी और आवश्यकता से अधिक 'मंहगे विलायती' को कुछ ज्यादा ही सम्मान प्राप्त है.. ऐसा भी नहीं कि एक चटोर भेली (गुड़) से ज्यादा, मुख में लार यह चाकलेट पैदा कर देगा या जून की तपती दोपहरी में भेली खाकर पानी पीने में जो तृप्ति मिलेगी वह चाकलेट दे पायेगा लेकिन रंगबिरंगे परिधान पहनकर जब यह विलायत से उतरा है तो कोल्हू की भेली उससे क्या मुकाबला करेगी.

पिछले दो दिनों से मैं अपने समकक्षीय, मध्यमवर्गीय मित्रों से उनके चाकलेट के प्रति अनुभव या उसकी उपलब्धता के विषय में जानकारी जुटा रहा था। मेरे सभी मित्रों के कमोबेश यही अनुभव रहे लेकिन मेरे एक मित्र न यह बताया कि.. "सर! दरअसल चाकलेट की लोकप्रियता के पीछे उसके भीतर ऐसे तत्वों का समावेश भी है जिससे उत्तेजना उत्पन्न हो" मित्र ने ऐसा तर्क दे दिया कि चाकलेट के विरुद्ध मेरे सारे तर्क फीके पड़ गये लेकिन यदि मामला उत्तेजना का भी है तो चाकलेट ही क्यूँ ? क्यूँ नहीं शिलाजीत बटी खिलाई जाये... क्योंकि बात मिठास की हो तो मीठे के सैकड़ों श्रेष्ठ विकल्प हैं और यदि मूल विषय उत्तेजना है तो उसके भी बहुत से विकल्प पहाड़ों की कंदराओं में छुपे हैं।

खैर! प्रेम में भीतर से बाहर तक मिठास होनी चाहिए क्योंकि चाकलेट की कड़वाहट तो मिनटों में खत्म हो जायेगी लेकिन सम्बन्धों की कड़वाहट इतनी आसानी से नहीं जाती। इसलिए खाइए,खिलाइए और बांटिए मिठास लेकिन इतना जरूर ध्यान रहे कि हमारे भारतीय प्रेम की मिठास का प्रतिनिधित्व इस चाकलेट के बस का नहीं...क्योंकि भारत में खेत में बैठकर न जाने कितने प्रेमी-प्रेमिका प्रेम वार्तालाप करते आठ फिट का गन्ना चूस जाते हैं लेकिन मजाल क्या है कि किसी गुल्ले में कुछ कड़वाहट आयी हो..

मित्रों इस पूरे लेख में लेखक ने पूर्ण ईमानदारी से चाकलेट और खुद के सम्बन्ध को उजागर किया है यह चाकलेट के प्रति उसका व्यक्तिगत शीतयुद्ध है..मुझे नहीं मालूम कि आपके बाल्यकाल में चाकलेट कितनी सुलभ रही या आप कितना उसको तवज्जो देते थे लेकिन मैंने तो कह दी अपने दिल की...😃

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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