"तलवार"
BY Anonymous24 April 2018 2:16 PM GMT

X
Anonymous24 April 2018 2:16 PM GMT
लगभग 1300 बर्ष पुरानी बात है, बर्तमान पाकिस्तान का सप्तसैंधव प्रदेश अभी अरबी आक्रांताओं से पददलित नही हुआ था। सिंधु,विपाशा, शतद्रु आदि नदी तट के वनो में ऋषि पुत्रियों द्वारा उच्चारित वेद मंत्र सिंहों की गर्जना के साथ मिल कर वन प्रान्तर में ऊर्जा का संचार करते थे। आर्यों की इस भूमि पर आक्रमण कर के आये शक, कुषाण, और यवनों के समस्त दल इसी जीवनशैली को अपना कर इस धरती पर अपना मस्तक नवा चुके थे।
इसी कालखंड में शतद्रु के पूर्वी तट पर एक गांव बसा था- कुंभल। ब्राह्मण, क्षत्रिय, पशुपालक, कुम्भकार, चर्मकार इत्यादि समस्त सामाजिक आवश्यक्ता वाले कर्मकारों की जनसंख्या से परिपूर्ण था गांव। तब ब्राह्मणादि जातियां नहीं,कर्मक्षेत्र हुआ करते थे। इसी गांव में दो परम मित्र रहते थे- ब्रम्हभट् और विशालाक्ष। ब्रम्हभट् गांव में संचालित लघु गुरुकुल का वेदज्ञ था और विशालाक्ष ग्राम रक्षा दल का सैनिक। गांव की ब्यवस्था राजनैतिक सीमाओं से स्वतंत्र थी और ग्राम रक्षा दल के 50 सैनिकों का कार्य दस्युओं से ग्रामीणों और फसलों की रक्षा करना था। विशालाक्ष इसी दल का क्षत्रिय था।
मित्रता के अतिरिक्त दोनों के मध्य एक सम्बन्ध और था।एक वर्ष पुर्व दोनों ने विशालाक्ष की कन्या सुपर्णा का विवाह ब्रम्हभट के पुत्र सुकर्ण के साथ तय कर दिया था। नियत था कि दस वर्ष पश्चात जब सुपर्णा 14 वर्ष की तथा सुकर्ण 16 वर्ष का हो जायेगा तब दोनों मित्र संबंधी हो जायेंगे। दोनों बालक बालिका को यह तथ्य ज्ञात था।
गांव शांति से जी रहा था कि अचानक एक दिन पता चला-शतद्रु के उस पार मोहमद बिन काशिम की सेना पहुच चुकी है। गांव के बुजुर्गों ने आपात बैठक की और सबसे पहले ब्रम्हभट को अपने वेदपाठी छात्रों के साथ गहन वन में प्रस्थान करने का आदेश दिया गया। यह वाह्य आक्रांताओं से अपनी संस्कृति की रक्षा की पुरातन ब्यवस्था थी। एक प्रहर के अंदर हीं ब्रम्हभट अपने परिवार तथा छात्रों के साथ गांव छोड़ चूका था, और दूसरे प्रहर में कासिम की तलवार गांव की गर्दन पर थी।
-----------------------------------------------------*
एक वर्ष बाद ब्रम्हभट अपने छात्रों के साथ कुंभल वापस आया तो देखा- गांव का शिवालय ध्वस्त किया जा चूका है, पूरा गांव मुसलमान बनाया जा चूका है।गांव के सारे तरुण और युवतियां दास बना कर अरब ले जाइ जा चुकी हैं। कहने की आवश्यक्ता नही कि उनके साथ क्या ब्यवहार होना था। धर्म बदलने से भी उन्हें क्षमा नही मिली थी,क्योंकि आक्रांताओ के लिए धर्म साधन मात्र था।
और विशालाक्ष अपना एक हाथ कटा कर निरीह हो चूका था।
गांव में पंचायत बैठी ! बुजुर्गों ने रोते हुए कहा- हम भ्रष्ट हो चुके हैं, पर ब्रम्हभट अपने छात्रों के साथ यहीं रह कर संस्कृति का पुनर्सृजन करे। ब्रम्हभट के पास अपने भ्रष्ट हो चुके मित्र को शुद्ध करने का सामर्थ्य नही था,पर मित्रता बनी रही। सुपर्णा और सुकर्ण के सम्बन्ध को दोनों मित्र भूल गए पर बालक बालिका को याद रहा।
नौ वर्ष बीत गए। सुकर्ण 16 वर्ष का हो चूका था। इन नौ वर्षों में अपने रंग में आ चुके उसके और सुपर्णा के प्रेम ने उन्हें अपना कर्तव्य याद दिलाना प्रारंभ कर दिया था। सुपर्णा अब घर से बाहर कम निकलती थी, यह आर्य संस्कृति पर प्रथम बाह्य कुप्रभाव था।
वसंत का महीना था। आर्य परंपरा की प्रारंभिक जीवन दायिनी शक्ति सरस्वती के सुख जाने के बाद उनकी स्मृति को बनाये रखने के लिए उन्हें बिद्या की देवी का रूप दे कर पूजने की परम्परा समस्त आर्यावर्त में फ़ैल चुकी थी। इसी पर्व के दिन अपने परिवार के साथ मित्र के घर पधारे विशालाक्ष के सामने युवा युग्म ने उन्हें उनकी प्रतिज्ञा याद दिलाई। मित्रों के सामने धर्म के नए अर्थ का यह प्रथम धर्मसंकट था। विशालाक्ष ने कातर स्वर में कहा- हम भ्रष्ट हो चुके हैं......
उत्तर दिया सुकर्ण ने- भ्रष्ट आपकी देह हो सकती है तात, हमारा प्रेम नहीं।
-पर हमारे धर्म अलग हैं पुत्र।
-हमारे ह्रदय एक हैं पिता।
-पर क्या ब्रम्हभट सुपर्णा को अपनी पुत्रवधु स्वीकार कर पाएंगे?
-मैं सुपर्णा को अपनी भार्या स्वीकार कर चूका हूँ पिता।
एक प्रहर तक चली चर्चा में ब्रम्हभट और विशालाक्ष के कातर स्वर दृढ होते गए और सुपर्णा एवं सुकर्ण के स्वर दृढ से कातर होते गए। अंत में दृढ स्वरों ने कहा- हमारे धर्म तुम्हारे विवाह को मान्यता नही देंगे।
कातर स्वरों ने कहा- हम आपके धर्मों को त्यागते हैं। हम नए धर्म का सृजन कर लेंगे।
दृढ स्वरों ने गर्जना के साथ कहा- यह ब्यभिचार होगा।
कातर स्वरों के पास अब कोई उत्तर नही था।
सुकर्ण ने देखा सुपर्णा की ऒर, चारो आँखों में सूखी सरस्वती उमड़ रही थी।
घर से बाहर निकल कर विशालाक्ष ने हाथ जोड़ कर देखा ब्रम्हभट की ऒर! ब्रम्हभट ने कहा- दोष हमारा नही मित्र, तलवार की शक्ति प्रबल है। अब इन आँखों में भी अश्रु छलक आये थे।
अगले प्रभात में सबने देखा- शतद्रु की धारा में सुकर्ण और सुपर्णा के शव बहे जा रहे थे। जल ने दोनों को शुद्ध कर दिया था।
सर्वेश
Next Story