हमने सनम को खत लिखा....

कल आइ आइ टी परिसर में घूमते हुए फोटोखिंचाई हुई। फोटो कई बार बहुत सारे शब्दों का विकल्प होते हैं।
पहले चिट्ठियाँ भी लिखी जाती थीं...अंतिम टैग लाइन थोड़ा लिखना ज्यादा समझना! कुछ इस तरह ही ब्लॉग,पोस्ट,ट्वीट में टाँगखिचाई के लिए भी मेरी तरफ से फोटूखिचाई चलती है।
...पोस्ट बॉक्स की यह कूड़ेदान जैसी हालत बड़ी अजीब लगी। पहले इन बॉक्सों में क्या क्या नहीं छुपा रहता था...संवेदना..शिकायतें...उलाहने, प्यार...सूचनाएँ....आवेदन...नौकरियाँ.... पूरा संसार।
चिट्ठियाँ भी आपस में बतियाती होंगी....कहाँ जा रही हो....कौन सी खबर लेकर...! दुख वाली सकुचाती होंगी...कि देर से पहुँचे...गुम हो जायँ....रस्ते में।
बहुत से गाने याद आए...
खत लिख दे सँवरिया के नाम बाबू....
डाकिया डाक लाया...
कि लिखवले रजमतिया...पतिया रोई रोई ना..
चिट्ठी आई है....पंकज उदास का...
चिट्ठी न कोई संदेश....जगजीत सिंह...
और...कबूतर जा जा.... इसमें बॉक्स की जरूरत नहीं थी। यह मेसेन्जर या ह्वाट्सएप्प का ओरिजनल वर्सन था....सीधे साजन को।
फिर था....लिखे जो खत तुम्हें वो तेरी याद में हजारों रंग के नज़ारे बन गये....सवेरा जो हुआ तो फूल बन गये, जो रात आई तो सितारे बन गये।
खैर....
अभी कोई ...विरह जैसी बात नहीं होती...पलों में चित्र वीडियो संदेश..लाइव़....। दुनिया बदल गई है।
स्वस्ति श्री सरब उपमा जोग....से चलकर थोड़ा लिखना ढेर बूझना...😎🤔😊
कोड लैंग्वेज़.... अब यही कर रही है...
Cal Kru ?
Ni mummy jg he..
Tm swt ho...
हें..जी.. काल करूँ.... मम्मी जग रही है.....तुम एस डबलू टी हो..🤔
......बढ़िया है अपना जमाना ओवर हो गया। नहीं तो अपने अंगरेजी हिन्दी पढ़ने पर अफसोस होता। बिना पढ़े बच्चे वो भाषा डिजाइन कर रहे हैं...कि पूछ के भी समझ नहीं आता।
...हमारे भी ज़माने थे....जब मित्रों के प्रेमपत्र के लिए कविताएं चुननी पड़ती थीं। मैं कबीर के दोहे लिख कर देता था। शेर गज़ल बहुत कम घुसते हैं खोपड़ी में।
प्रीत अड़ी है तुज्झ पै,बहुगुनियाला कंत।
जो हँसि बोलौं और से,नील रंगाओं दंत।।....
ऐसे ऐसे...दोहे...मैं सोचता था...इसके भाव से मुग्ध हूँ....तो सभी होंगे। एक्चुअली मैं गधा था...।
सच में चिट्ठियाँ वो हैं...जो कभी लिखी न गईं...पोस्ट न हुईं....फिर भी ...उत्तर की प्रतीक्षा की गई।
.डाकबाबू ...आया... गली गली खत बाँटे....मेरा खत न लाया।
और.... फिर कोई चिट्ठी डाल भी दी....तो डाकिया लौटा गया....
सारे ज़माने में नहीं..
इस डाकखाने में नहीं
कोई शहर इस नाम का
कोई गली इस नाम की
कोई.... सनम...इस नाम का।
पोस्ट बॉक्स का कूड़ेदान बनना....मुझे इस समय में मरती संवेदनाओं, रिश्तों के सूखते तंतुजाल ..और प्रतीक्षा की प्रार्थनाओं आकुलताओं से वंचित होते एक मृगमरीचिका बनते संसार की सूचना जैसा लगा।
डॉ. राजीव रावत सर साथ थे...एक दोहा कबीर बाबा का वे भी कहते हैं....
निसि दिन नौबत बाजती, होत छतीसो राग।
सो घर भी खाली पड़े, बैठन लागे काग।।
वेदप्रकाश मिश्रा