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भोजपुरी कहानिया

युगों युगों से विश्व में लोग एक दूसरे को धोते रहे हैं, धुलता हुआ व्यक्ति जब कोंय-कोंय करता है....

युगों युगों से विश्व में लोग एक दूसरे को धोते रहे हैं, धुलता हुआ व्यक्ति जब कोंय-कोंय करता है....
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खबर है कि 'फलां' ने 'चीलां' को धो दिया। मुझे लगता है 'धोना' हिन्दी की सबसे मनोरंजक क्रिया है। मैं जब किसी के द्वारा किसी को धोए जाते देखता हूँ तो मेरा मन मयूर हो उठता है। एक धुलता हुआ व्यक्ति जब कोंय-कोंय करता है तो मैं हर्षातिरेक से 'आम जनता' हो जाता हूँ।

यह धुलाई किसी भी समाज की एक आवश्यक अंग रही है। आप अपने घर में ही देखिये- पत्नी पति को धोती है, कभी कभी पति भी पत्नी को धो देता है, मित्र मित्र को धोता है, धनी व्यक्ति दरिद्र को धोता है, सबल निर्बल को धोता है...युगों युगों से विश्व में लोग एक दूसरे को धोते रहे हैं।

मेरे मित्र इस बात के लिए मेरी आलोचना करते हैं, पर मैं धोने का समर्थक हूँ। हाँ इतना अवश्य है कि मैं धोने में भी पूर्ण निरपेक्षता और ईमानदारी का पक्षधर रहा हूँ। मैंने झारखंड का वीडियो देखा जिसमें कुछ लोग मिल कर एक महान आत्मा को धो रहे हैं। मुझे यह धुलाई अच्छी नहीं लगी। इस धुलाई में ईमानदारी नहीं है, मैं उसकी कड़ी निन्दा करता हूँ। आप ध्यान से वीडियो देखें, धोने वाले युवक सारा साबुन उस महान आत्मा के मुह और पर ही मल रहे हैं। यह तो सीधा सीधा सामन्तवाद है। मैं धोते समय व्यक्ति के प्रत्येक अंग के साथ समान व्यवहार का समर्थक हूँ। यह कौन सी बात हुई कि पूरी धुलाई हो गयी और व्यक्ति का "विशेष अंग" उपेक्षित रह गया? व्यक्ति का पिछवाड़ा सामान्य कोटि का अभ्यर्थी है क्या कि उसे धुलने का मौका नहीं दिया जाएगा? धोने में आरक्षण नहीं चलेगा, इस तरह भेदभाव सहन नहीं किया जा सकता। मेरे हिसाब से धोते समय अल्पसंख्यक गालों के साथ सामान्य कोटि के पिछवाड़े की भी समान रूप से सेवा होनी चाहिए। हमारा लोकतंत्र यही कहता है कि व्यक्ति के समस्त अंग समान रूप से विकास करें, समान रूप से सेवित हों, समान रूप से सूजें, फूलें-फलें। यही बाबा साहेब द्वारा रचित संविधान का मूल है।

इसके अतिरिक्त वीडियो में मुझे उस महान आत्मा के कोंकीयने की ध्वनि भी सुनाई नहीं दे रही, फिर यह किस बात की धुलाई है। महत्वपूर्ण यह नहीं कि आपने किसी को कितना धोया, महत्वपूर्ण यह है कि सामने वाला आपकी धुलाई से कितना सन्तुष्ठ हुआ। ग्राहक की संतुष्टि ही व्यवसाय की दिशा तय करती है। जब तक कोई व्यक्ति कोंय-कोंय नहीं कर उठता तबतक धुलाई पक्की नहीं मानी जा सकती। अधिक नहीं तो कम से कम 'उई हुई हुई हुई...' की ध्वनि भी आनी चाहिए, तभी तो ग्राहक की संतुष्टि मापी जाएगी। मुझे लगता है कि झारखंड वाले युवक अपने सेनापति की भांति 'करने' से अधिक 'फेकने' पर ध्यान देते हैं। मैं झारखंड के युवाओं की एक बार और निन्दा करता हूँ।

धोने के सम्बंध में मेरे विचारों से मेरे अनेक मित्र असहमत रहते हैं। मेरे एक मित्र ने मुझे लगभग डांटते हुए कहा था- "तुम साहित्यकार हो कर इस तरह की हिंसा का समर्थन कैसे कर सकते हो, तुम्हें शर्म नहीं आती?"

मैंने अपनी मातृभाषा में बड़े प्रेम से कहा- "सरउ! मारब जवने झाँपड जे छेर देबs.." फिर राष्ट्र भाषा मे कहा- मित्र! तुम विश्व में सबसे अधिक हत्या कराने वाली विचारधारा का समर्थक होने के बाद भी बुद्धिजीवी कहला सकते हो तो मैं इस धुलाई का समर्थक हो कर साहित्यकार क्यों नहीं हो सकता? मैं कश्मीरी हिन्दू और तुम रोहिंग्या मुसलमान हो क्या?"

मित्र आजकल मुझसे बात नहीं करते।

वस्तुतः एक व्यक्ति द्वारा दूसरे का धोया जाना ही परम सत्य है। आप यदि किसी को नहीं धोते हैं तो दूसरा आप को धोएगा। जो लोग धोना नहीं सीखते, वे सदा धोए जाते हैं।उदाहरण के लिए बौद्ध धर्मावलम्बियों को देखिए, वे घोर अहिंसक रहे हैं। उन्होंने सदैव धोने का विरोध किया। फल यह हुआ कि मध्य एशिया से भारत तक स्वयं तो धोए ही गए, साथ साथ हिन्दुओं को भी धुलवा दिया। वर्मा में भी हमेशा धोए गए। चुटकी भर रोहिंग्या उन्हें नित्य धोते रहे। आखिर उन्हें सत्य समझ में आया और उन्होंने धोना सीखा। फल यह हुआ कि अब वे धो रहे हैं और रोहिंग्या भगे फिर रहे हैं।

आप विश्व का इतिहास देखिये, सदैव धोने वाले को ही पूजा जाता रहा है। भारतीय इतिहास की किताबों में सबसे ज्यादा सम्मान उस औरंगजेब को मिलता है जिसने अपने पिता, भाई, बहन, भतीजों के साथ साथ भारत की आत्मा को पटक पटक कर धो दिया। देश के बुद्धिजीवी इतिहासकारों ने मात्र दो राजाओं को ही महान कहा है। एक वह सम्राट अशोक जिसने अपने निन्यानवे भाइयों को धो दिया था, और दूसरा वह बादशाह अकबर जिसनें एक विधवा महारानी के राज्य को हड़पने के लिए डेढ़ लाख की सेना भेजी और जीतने के बाद अपने सैनिकों को आम स्त्रियों के बलात्कार की खुली छूट दी।

ये दोनों सज्जन महान इतिहासकारों की दृष्टि में केवल इसीलिए महान थे क्योंकि इन दोनों ने भारत को सबसे अधिक धोया था।

धोने वाले ही महान कहलाते रहे हैं।

धोने की यह सनातन यात्रा यूँ ही चलती रहेगी। हजार वर्षों से निरन्तर धोए गए भारत को भी अब धोना सीख ही लेना चाहिए, तभी विश्व उसका सम्मान करेगा।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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