फिर एक कहानी और श्रीमुख "रहस्य"

27 जनवरी सन 1556 ई.
लगभग एक तिहाई भारत पर शासन कर रहा हुमायूँ अपने सबसे विश्वासपात्र सेवक बैरम खाँ की बलिष्ठ जंघा पर सर रखे अंतिम साँसे गिन रहा था। हुमायूँ और बैरम दोनों की आँखों में जल भर आया था। अपनी अनियंत्रित उल्टी साँसों से लड़ते हुए हुमायूँ ने बैरम खाँ की ओर एक निरीह दृष्टि डाल कर कहा- कुछ कहूँ तो मानोगे बैरम?
बैरम खाँ ने रोते हुए कहा- हुक्म कीजिये जहाँपनाह! गुलाम आपके लिए दुनिया को फूँक देगा।
हुमायूँ के मुखड़े पर एक पीर भरी मुस्कान तैर उठी। कहा- नहीं बैरम! अब अंतिम घड़ी है, अब दुनिया जीतने की चाह नहीं रही।
बैरम ने उद्विग्न हो कर कहा- हुक्म कीजिये सुल्तान!
- तुम सलीमा से निकाह कर लो।
-"जो हुक्म सुल्तान" बैरम ने बिना कुछ सोचे सर झुका दिया। सलीमा हुमायूँ की भांजी थी।
- एक बात और...
- हुक्म मेरे मालिक
-अकबर अभी मात्र तेरह वर्ष का है, उसकी रक्षा करना, उसकी ढाल बनना। उसे भारत का सबसे यशस्वी सम्राट बनते देखने की चाह लिए जा रहा हूँ। वचन दो कि मेरी इस अंतिम इच्छा का मान रखोगे।
-"अल्लाह.... आज से बैरम खाँ की हर साँस शहजादे बदरुद्दीन की गुलाम हुई..." बैरम ने आकाश की ओर देखते हुए कहा।
हुमायूँ को अपने इस दास पर सबसे अधिक विश्वास था। उसकी आँखों में शांति उतरने लगी। धीरे धीरे वह शान्त हो गया....
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बैरम ने हुमायूँ के अंतिम समय में दिए गए वचन का पूर्णतः पालन किया। हुमायूँ की मृत्यु के कुछ दिन पश्चात ही उसने सलीमा से विवाह किया, और अपना सम्पूर्ण जीवन शहजादे बदरुद्दीन को समर्पित कर दिया। उसने अपनी कुटिल युद्ध शैली की शक्ति से पानीपत के द्वितीय युद्ध में दिल्ली के शासक हेमचन्द्र को पराजित किया और बदरुद्दीन को 'जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर' के नए नाम के साथ बादशाह घोषित किया। मात्र चौदह वर्ष के अकबर के लिए वह सचमुच ढाल बन गया था।
समय धीरे-धीरे अपने रंग में आ रहा था। पानीपत युद्ध के बाद भी बैरम शांत नहीं बैठा, और मात्र वर्ष भर में ही ग्वालियर, जौनपुर, सम्भल, अजमेर, चुनार आदि प्रदेशों को मुगल ध्वज के अधीन कर लिया।
बैरम ने अकबर को अब उतर भारत का निष्कंटक सम्राट बना दिया था, पर सत्ता की बागडोर अप्रत्यक्ष रूप से उसी के हाथ में रहती थी। अकबर भी उसके संरक्षण में सन्तुष्ट था।
समय बीत रहा था... अकबर अब अपनी आयु के उस सोलहवें वर्ष में पहुँच चुका था, जब हृदय में कोमल भावनाएं सबसे तीव्र गति से पसरती हैं। बैरम खाँ उसके सल्तनत का 'खान-ए-खाना' अर्थात प्रधानमंत्री था, सो उसका परिवार भी शाही महल में ही रहता था। बैरम अकबर के साथ पुत्रवत व्यवहार करता था, सो समय मिलने पर अकबर उसके घर यूँ ही चला जाता था।
सलीमा सोलह वर्ष की अल्हड़ किशोरी थी, जिसके हृदय में अब प्रेम के रसायन बनने लगे थे। अकबर भी इसी आयु में था। इस प्रकार अकबर और सलीमा दोनों के हृदय में जब प्रेम का प्रथम प्रवाह हुआ, उस समय उन दोनों ने एक-दूसरे को ही देखा। समय इन दो अल्हड़ युवक-युवती को देख कर मुस्कुरा उठा था।
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बैरम खाँ जब तक हुमायूँ के संग था तबतक परिवार विहीन था, सो सल्तनत के प्रति उसकी उच्च निष्ठा थी। किंतु अब वह एक घरबारी गृहस्थ था। इसी बीच जब बैरम चुनार के युद्ध में था तब उसे सूचना मिली कि वह एक पुत्र का पिता बन गया है। कदाचित यह पिता होने का हर्ष था जिसने बैरम खां को शिथिल कर दिया और मुगल सेना चुनार को न जीत सकी। बैरम हार कर वापस लौट आया। कुछ दिनों पश्चात मुगल सेना मालवा के अभियान पर निकली, पर बैरम की शिथिलता नें वहाँ भी पराजय का ही मुह दिखाया।
इन दो पराजयों नें अकबर और बैरम के मध्य दूरी बढ़ा दी। अकबर अब अपना निर्णय स्वयं लेने लगा। धीरे धीरे उसे बैरम से चिढ़ होने लगी, और अब वह बैरम से मुक्ति चाहने लगा। अकबर कहने को तो बादशाह था, पर अब भी बैरम की शक्ति कहीं बढ़ी चढ़ी हुई थी। अकबर ने उससे मुक्ति पाने के लिए उसके विरोधियों को अपने साथ मिला कर एक षड्यंत्र रचा। अकबर में दिल्ली में चुपके से युद्ध के लिए एक बड़ी टुकड़ी को तैयार किया। युद्ध की स्थिति में सुरक्षा की पूर्ण व्यवस्था कर लेने के पश्चात अकबर ने बैरम खाँ के लिए खानेखाना पद को छोड़ कर हज के लिए मक्का जाने का आदेश निकाला।
बैरम के लिए यह आदेश अप्रत्याशित था। उसके समर्थकों ने उसे विद्रोह की सलाह दी, पर बैरम ने इसे अस्वीकार कर दिया। वह नहीं चाहता था कि राजद्रोह करने के कारण मुगल सल्तनत को दी गयी उसकी जीवन-पर्यन्त सेवाओं पर दाग लगे। उसने चुपचाप अकबर के समक्ष समर्पण कर अपने पद की मुहर लौटा दी और हज के लिए मक्का की ओर निकल गया।
पर अकबर इतने से ही नहीं मानने वाला था, उसने अभी और तैयारी की हुई थी। मक्का जाते समय रास्ते में पाटन के पास पहले से घात लगाये सैनिकों ने उसपर आक्रमण किया और बैरम खां मार डाला गया।
दो दिन पश्चात बैरम की मृत्यु की सूचना अकबर के दरबार तक पहुँची, तो अकबर ने संसार को दिखाने के लिए दो दिन के राजकीय शोक की घोषणा की। पर मन ही मन वह प्रसन्न था।
दो दिन के बाद जब अकबर दरबार में आया तो बैरम खाँ का दास उसके लिए एक बन्द लिफाफा लिए खड़ा था। बैरम ने उससे कहा था, "मेरे मक्का पहुँचने के बाद यह लिफाफा बादशाह अकबर को दे देना।"
अकबर ने लिफाफा खोल कर देखा, उसमें एक छोटा सा पत्र था जिसमें लिखा था-
प्रिय बदरुद्दीन!
तुमको जीवन भर अपने पुत्र की भाँति ही स्नेह करता आया हूँ। मैं नहीं जानता कि मेरे प्रति तुम्हारे क्रोध का क्या कारण है, और अब जानना भी नहीं चाहता। मुगल बंश को दी गयी अपनी जीवन पर्यंत सेवाओं के बदले में तुम्हारा यह खान बाबा तुमसे कुछ मांगना चाहता है। आज से पाँच वर्ष पूर्व बादशाह हुमायूँ ने भी जाते समय मुझसे यही मांगा था। मैंने तुम्हारे पिता की इच्छा पूरी की, आशा करता हूँ कि तुम भी मेरी इच्छा पूरी करोगे। मेरी बस दो मांगे हैं। पहली- तुम सलीमा से निकाह कर लेना। और दूसरी- मेरे 'रहीम' की रक्षा करना, वह तुम्हारी ही सन्तान है।
अकबर आश्चर्य में डूब गया। सलीमा के साथ अपने सम्बन्धों के कारण वह रहीम के पिता होने की बात पर तो विश्वास कर सकता था, पर बैरम खाँ यह बात कैसे जान गया यह उसके लिए रहस्य था।
वह दरबार से उठ कर सीधे सलीमा के पास गया और प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हुए बोला- क्या सचमुच रहीम....?
शकीला ने काँपते स्वर में कहा- हाँ!
- खान बाबा को यह बात कैसे ज्ञात हुई?
- वे नपुंशक थे जहाँपनाह! उनमें पिता बन पाने की सामर्थ्य नहीं थी। वे समझ गए थे कि वह तुम ही हो....
अकबर धम्म से वहीं बैठ गया।
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अगले दिन दरबार में काजी को बुला कर अकबर ने सलीमा बेगम से निकाह किया। सलीमा उसकी पहली पत्नी हुई।
रहीम का पालन पोषण अकबर के संरक्षण में ही हुआ और बड़े होने पर उसे खानेखाना की उपाधि दी गयी।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।