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असली मुद्दा क्या है श्रृंखला..... मुद्दा नंबर चार: कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में नशाखोरी और गाँजा पीकर क्रिएटिव बनते छात्र
BY Suryakant Pathak27 May 2017 3:01 PM GMT

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Suryakant Pathak27 May 2017 3:01 PM GMT
हर जगह गाँजा प्रतिबंधित है। और हर जगह ये मिल रहा है। ये आपको कॉलेज का कोई छात्र बता देगा। आपको मुँह खोलने की ज़रूरत है, वो आपको लैटिट्यूड-लॉन्गिट्यूड सब उपलब्ध करा देगा। कई जगह होम डिलेवरी का भी सिस्टम है। एक मित्र बताते हैं, "ये सिर्फ गांजे, चरस और स्मैक तक ही सीमित नहीं है। MD, कैटामाइन और दूसरे ख़तरनाक ज़हर भी इजिली अवेलेबल हैं। NCR से लेके राज्य के विश्विद्यालयों तक पूरा बाजार है। सिर्फ पंजाब ही नहीं उड़ रहा है, दिल्ली और उत्तर-प्रदेश भी आसमान चूम रहे हैं।"
आपको बोर्ड भी दिखते होंगे कि यहाँ से सौ मीटर के दायरे में तम्बाकू उत्पाद बेचना मना है। ज़ाहिर है ये लोग तम्बाकू को एकदम टेक्निकली ले लेते हैं और गाँजा, नशे के टेबलेट्स आदि बेचते हैं क्योंकि वो तम्बाकू नहीं है। कारण जो भी हो, सत्य ये है कि हर कॉलेज, हॉस्टल के बाहर इन चीज़ों को आसानी से उपलब्ध कराने वाले लोग मौजूद होते हैं। इस सत्य को ना तो पीने वाला नकार सकता है, ना ही ना पीने वाला। पीने से मतलब गाँजा से है। दारू तो प्रसाद रूप में बहता ही है, तो उसको बाय डिफ़ॉल्ट मानकर पढ़ा जाय।
एक ज्ञानी तर्क आता है कि इसमें बुराई क्या है? कुछ लोग गाँजा पी रहे हैं तो उससे सरकार को क्या तकलीफ़ है। तकलीफ़ तो सरकार को आपके द्वारा कई और काम करने पर भी नहीं है, लेकिन देश में कुछ कानून हैं जो नागरिकों की भलाई के लिए बनाए गए हैं। यहाँ तक कि आप अपनी जान भी नहीं ले सकते, वो भी अपराध है। कुछ लोग गाँजे के फ़ायदे के बारे में तर्क देने लगते हैं। अगर ये फ़ायदेमंद ही होता, और वो भी वैसे जैसे आप लेते हैं, तो डॉक्टर जरूर इसकी सलाह देते ज्वाइंट बनाकर पीने के लिए।
नशाखोरी के दो प्रमुख कारण हैं, खासकर कॉलेजों में। एक है इसका ग्लैमर, और दूसरा है इसको अपनाने की चाह कि आख़िर होता क्या है। मुझे दोनों ही कारण उतने आकर्षक नहीं लगे तो कभी भी ना तो दिखाने के लिए सिगरेट पी, ना ही ये जानने के लिए कि आख़िर लगती कैसी है। वैसे ही मेरा दुबला शरीर देखकर सौ दोस्तों ने हज़ार बार बीयर पीने की सलाह दी, मुझे वो कभी कन्विन्सिंग नहीं लगा।
ग्लैमर के चक्कर में कि बहुत लोग पीते हैं, मैं सेक्सी लगता हूँ आदि सोचकर शुरु बहुत लोग करते हैं फिर इसके प्रभाव में आकर एडिक्ट हो जाते हैं। ये साबित करने के लिए मैं आपको फलाने शोधपत्र का फ़लाना पन्ना नहीं बताने वाला क्योंकि ये कॉमन सेन्स की बात है जो हर जगह दिखती है। सिगरेट से लेकर, गाँजा, चरस, हेरोइन, एक्सटेसी, कैटामाइन, स्पैज्मो आदि विटामिन तो नहीं देते, इतना मुझे पता है।
और ये भी पता है कि ये शरीर को नुक़सान पहुँचाते हैं। आपको शरीर से प्रेम ना हो, वो बात अलग है। उसको ख़त्म करने के हज़ारों तरीक़े हैं, वो आजमाईए, लेकिन ये दलील मत दीजिए कि मैं जीना नहीं चाहता। नहीं जीना चाहते तो सिगरेट क्यों पीना, ज़हर पी लीजिए। हिम्मत दिखाईए। लेकिन वो आपसे नहीं हो पाएगा क्योंकि आप निहायत ही डरपोक आदमी हैं जिसके पास ढंग की दलील भी नहीं है।
जो लोग क्यूरियोसिटी में इसे पीना शुरू करते हैं, वो भी ऐसे ही इसकी गिरफ़्त में फँसते चले जाते हैं। इसमें सबसे प्रबल तर्क ये आता है कि ज़िंदगी छोटी सी है तो ट्राय करके देखना चाहिए कि क्या कैसा लगता है। लेकिन ये कुतर्क है क्योंकि ट्राय करने से आपको मतलब नहीं है, आपको जस्टिफिकेशन देना है। ट्राय करने के लिए चलती रेलगाड़ी से दौड़ लगाना, बीस मंज़िला इमारत से कूदना, अपनी पैंट में आग लगा लेना, अपने सर पर ईंट मारना आदि कई ऐसा काम हैं जो ऐसे लोगों को करना चाहिए।
नशाखोरी का एक और पहलू है, जो कि खासकर कॉलेजों में ही दिखता है, कि इससे क्रिएटिविटी बढ़ती है। मैंने कभी पी नहीं, लेकिन पीने वालों से वाक़िफ़ हूँ और मुझे पता है कि उनकी क्रिएटिविटी कितनी है, और उन्होंने गाँजा, भाँग, दारू पीकर क्या क्रिएट कर लिया है। और ये भी पता है कि नहीं पीते तो क्या कर लेते। ऐसे लोगों पर एक तुलनात्मक अध्ययन होना चाहिए कि 'क्या सच में नशा करने से आदमी की रचनात्मकता में इज़ाफ़ा होता है?'
ये पूरा कल्चर इस बात से आता है कि इनको जितने रॉक स्टार दिखते हैं, वो सब के सब गाँजा, दारू में लिप्त नज़र आते हैं। उनको लगता है कि गाँजा पीकर वो बॉब मारले बन जाएँगे लेकिन उन्हें ये नहीं पता कि बॉब मारले संगीत बजाता था और गाँजा भी पीता था। उसके गाँजा पीने के कारण ही वो संगीत लिख पाता था, ऐसा कोई प्रमाण नहीं है।
ये एक भगौड़ापन है। जो लोग परेशान होते हैं वो एक रास्ता ढूँढते हैं ख़ुद को समझाने का। इसी समझाने के चक्कर में सिगरेट उठाते हैं, और फिर लत लग जाती है। हर परेशान आदमी नहीं पीता, लेकिन हर परेशान छात्र को सिगरेट पकड़ाने वाले दस दोस्त लाइटर लेकर खड़े रहते हैं। ये एक तरह से कन्वर्जन टाइप का काम है। ये कम्यूनिटी बनाने का काम है कि अब ये भी हमारे ग्रुप में आ गया। लोग इस बात को पहले मज़े के लिए करते हैं, और फिर बच्चे के पैदा होने का इंतज़ार करते हैं कि वो कहेगी तो छोड़ दूँगा। क्योंकि ऐसे लोगों को सेन्सिबल तर्क से ज़्यादा बीवी-बच्चों का मोटिवेशन चाहिए होता है।
एक लाइन में ये बात जाननी ज़रूरी है कि अगर आपने विद्यार्थी जीवन में नशा को हाथ नहीं लगाया तो शायद उम्रभर इससे बचकर रह जाएँगे। अगर आपने इसे हाथ में ले लिया तो फिर छोड़ने में मेहनत तो करनी होगी ही, आपके स्वास्थ्य का भी भगवान ही मालिक है। बचपन में चाय पीने के बाद पानी पीने से लोग मना करते थे तो हम पीकर कहते थे कि 'दाँत कहाँ टूटा'। लेकिन अब जब मटन की हड्डी में दाँत मारने से दाँत का किनारा टूटकर बाहर आता है तो समझ में आता है कि लोग क्यों कहते थे।
वही बात सिगरेट, गाँजा, पिल्स आदि से भी है। आप कहेंगे कि मुझे तो बिना पिए ही लिवर का, और बिना सिगरेट के फेफड़ों में टीबी हो गया दो बार, और पीने वाले तो मस्त हैं। हाँ, मेरे साथ ऐसा हुआ लेकिन हो सकता है कि मैं दोनों ही बार बच भी इसलिए गया कि मेरे फेफड़ों में टार नहीं था, ना ही मेरा लिवर उस स्थिति में पहुँच गया था कि टीबी की दवाईयाँ लेकर भी बच पाता। टीबी या और रोग कई कारणों से होते हैं। नशाजनित रोग हमेशा सीधे लक्षण नहीं दिखाते। आपको लगता है कि दाँत कहाँ टूटा, लेकिन वो टूटेगा जरूर। इंतज़ार कीजिए।
नशा अच्छा नहीं होता। आप विद्यार्थी होने वाली उम्र में इसलिए भी बच जाते हैं क्योंकि वो बढ़ने की उम्र होती है, और आपकी इम्यूनिटी आदि बेहतर होती है। आप में ऊर्जा होती है, और आपका शरीर उसको झेलता जाता है। इसका मतलब ये नहीं कि वो झेलता ही रहेगा। वो एक दिन टूटेगा, और बाक़ियों से पहले टूटेगा। आप जितना चाहे डिबेट कर लीजिए, तर्क दे दीजिए लेकिन नशाखोरी को आप अच्छा या टॉनिक जैसा नहीं बता पाएँगे।
कैम्पसों में अगर ये व्यापार धड़ल्ले से चल रहा है तो बिना पुलिस की मिलीभगत से ये संभव ही नहीं है। सरकार या कोर्ट सिर्फ गाइडलाइन्स बना सकती हैं, पुलिस ही उसको लागू करने में मदद कर सकती है। ऐसे में वैसे छात्रों को प्रदर्शन आदि करते हुए कॉलेज के मैनेजमेंट को इसपर कार्यवाई करने को विवश करना चाहिए। लगातार ऐसे कारोबारियों को भी पकड़कर भगाना चाहिए। पुलिस की जगह उस इलाके के एसपी, एसीपी जैसे लोगों को इसके बारे में बताना चाहिए क्योंकि कई बार वो लोग इस बात को गम्भीरता से लेते हैं।
इस पर बात होनी ज़रूरी है क्योंकि नशाखोरी के कारण भी कई टैलेंटेड छात्र-छात्राएँ अपना भविष्य बर्बाद कर लेते हैं। मैं ऐसे लोगों को बहुत क़रीब से जानता हूँ जिनसे बहुत आशाएँ थीं, और वो आज कुछ बेहतर कर पाने की जगह मजबूरी में कहीं नौ से पाँच की नौकरी कर रहे हैं। मुझे पता है कि वो इस काम के लिए नहीं बने थे। आपके भी दोस्तों में कई होंगे जो बर्बाद हो रहे होंगे। इसका कोई पुख़्ता समाधान नहीं है मेरे पास सिवाय ये कहने के कि ये बुरा है।
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