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असली मुद्दा क्या है श्रृंखला..... मुद्दा नंबर पाँच: रोजगार जिसके आँकड़े 2012 के बाद से अपडेट नहीं हुए
BY Suryakant Pathak28 May 2017 10:41 AM GMT

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Suryakant Pathak28 May 2017 10:41 AM GMT
निकोलस तालेब, बिग-डेटा एनालिस्ट, कहते हैं कि आँकड़ों को टार्चर करके आप अपने मन की बात कहवा सकते हैं। मतलब ये कि आँकड़ों से ही खेलना है तो फिर बात नज़रिए पर आकर टिक जाती है, और इस बात पर कि आपके पास कितने आँकड़े हैं। पिछले मुद्दों पर मैंने सरकार द्वारा शिक्षा के बजट पर ख़र्चे का आँकड़ा दिया कि इस साल, पिछले साल की अपेक्षा, लगभग दस प्रतिशत का ज़्यादा प्रावधान किया है।
इसका मतलब ये है कि सरकार का ध्यान है इस पर। अब दूसरा एंगल ये है कि अगर इस शिक्षा बजट को कुल जीडीपी के हिस्से के रूप में देखा जाय तो पिछले साल की अपेक्षा कम है। फिर आप ये कह सकते हैं कि यूपीए की अपेक्षा ज़्यादा बजट है। फिर आप ये कह सकते हैं कि इस सेक्टर में कम है, यहाँ ज़्यादा। फिर आप हर विद्यार्थी के सर पर कितने का ख़र्च है वो निकाल कर कहेंगे कि सरकार इतना कम ख़र्च कर रही है...
मतलब ये है कि इसका अंत नहीं। अब आते हैं रोजगार के मुद्दे पर। इस पर बात करने से पहले ये बात जानना आवश्यक है कि सरकारी आँकड़े 2012 के बाद अपडेट नहीं हुए हैं और आप सरकार की साइटों पर जाकर देखेंगे तो आपको तीन दशक में सबसे कम बेरोज़गारी दर दिखाता आँकड़ा दिख जाएगा। लेकिन ख़बरें पढ़ेंगे तो सब मोदी को गरिया रहे हैं कि जॉब नहीं बनाए जा रहे हैं, जैसा कि मोदी ने कहा था।
मोदी ने तो खैर बहुत कुछ कहा था, बहुत कुछ नहीं कहा था वो भी कर रहा है। भारत में बेरोज़गार उसे कहा गया है जिसके पास कोई काम नहीं है और वो काम करने को लालायित है, कोशिश कर रहा है। अगर आपके पास काम नहीं है, और आप कोशिश नहीं कर रहे तो आपको बेरोज़गार नहीं कहा जाएगा। ये खेल वैसा ही है जैसा हमलोग ग़रीबी रेखा के मानदण्ड नीचे करते हुए लोगों को अमीर बना देते हैं।
दूसरी बात जाननी ज़रूरी है वो ये कि पिछले तीन दशकों से, आज के समय तक, भारत में कम दर से ही सही लेकिन रोजगार बढ़ रहे हैं। इसका कारण ये है कि खेती में पहले तीन चौथाई आबादी लगी थी, फिर वो घटकर आज के दौर में आधी रह गई है। कृषि में रोजगार पाने वाले लोग पलायन करते हुए शहरों की ओर निकले और इन्फ़्रास्ट्रक्चर बूम में मज़दूरी आदि करते हुए रोजगार पाने लगे। ऐसे लोग आमतौर पर छोटे मैनुफ़ैक्चरिंग यूनिट्स में भी अच्छी संख्या में नौकरी पा रहे हैं।
तीसरी बात ये आती है कि इतने ग्रेजुएट जो निकल रहे हैं, उनके लिए नौकरियाँ कहाँ हैं? नौकरियाँ नहीं है, और ऑटोमेशन के कारण ये और कम होंगी। इसको कोई सरकार रीवर्स नहीं कर सकती। रोने वाले तो इस बात पर भी रो रहे हैं कि भूपेन्द्र हज़ारिका सेतु बनने से डेढ़ सौ नाविक बेरोज़गार हो गए जो नदी पार कराते थे। ये मूर्खतापूर्ण बात है, वो भी तब जब सरकार ने कहा है कि उनके लिए दूसरे रोजगार का इंतज़ाम करेगी। करेगी कि नहीं, ये मुझे नहीं पता लेकिन इस तरह की बात करना मूर्खता से ज़्यादा कुछ नहीं क्योंकि आपको सड़कें भी चाहिए, पुल भी चाहिए, और फिर आप ये भी कहेंगे कि पैदल चलने से तो हमारा स्वास्थ्य सही रहता था, और पाचँ घंटे की यात्रा को आपने आधा घंटे का करके हमारे साथ नाइंसाफ़ी की है।
हाँ तो, ग्रेजुएट जिन्हें नौकरी नहीं मिल रही उसके लिए सरकार क्या कर रही है? ये प्रश्न उचित है, खासकर उस सरकार से जिसने रोजगार को अपने मैनिफेस्टो में जगह दी थी, और पिछली सरकारों को ज़लील करते रहे। क्या रोजगार के अवसर बढ़े हैं? जी नहीं। वो या तो बहुत कम बढ़े हैं, या सिर्फ एक रोडमैप है कि ये करेंगे तो वो हो जाएगा। ज़मीनी हक़ीक़त यही है कि ज़्यादा लोग कॉलेज से निकल रहे हैं, और उनके लिए काम नहीं है।
चीन में काम करने वाले हाथ बूढ़े हो रहे हैं, और हम ये जप रहे हैं कि हमारी आधी आबादी जवान है। और जवान लोगों के लिए हमारे पास नौकरी है नहीं। दूसरी बात ये भी है कि कृषि, जिसपर आधी आबादी लगी हुई है, उसको आपने कभी भी फ़ायदेमंद बनाने के लिए कुछ नहीं किया। किसी सरकार ने नहीं किया। मिनिमम सपोर्ट प्राइस तो ऐसा छलावा है कि कभी सड़कों पर प्याज़, टमाटर, आलू फेंके जाते हैं, और कभी वो अस्सी रुपए किलो बिक रहे होते हैं। आपके पास कोल्ड स्टोरेज नहीं हैं, और कभी उत्पाद सड़ते हैं, बर्बाद होते हैं, कभी आपको मोज़ाम्बिक़ में दाल रोपने के लिए ज़मीन लेनी पड़ती है।
फिर इस कार्य में कोई भी अपने बच्चों को क्यों लगाना चाहेगा? कृषि में ही वो संभावना है कि वो एक बहुत बड़ी आबादी को फ़ायदेमंद रोजगार दे सकता है। लेकिन इसके लिए पूरी व्यवस्था सही करनी होगी। इसमें सरकार ने कई क़दम उठाए हैं, लेकिन वो अभी भी दलालों के नेक्सस को तोड़ने में नाकाम रही है। किसानों के उत्पाद सही दाम पर नहीं लिए जा रहे हैं। मृदा हेल्थ कार्ड, ई-नाम आदि ठीक है लेकिन वो ज़मीन पर भी दिखे तो बेहतरी की गुँजाईश है। किसान दुःखी है, वो खेत बेचकर बच्चों को पढ़ाता है तो फिर उसे वापस खेती में लगाने से पहले बहुत बार सोचेगा।
मेक इन इंडिया को रंग दिखाने में समय लगेगा। मैनुफ़ैक्चरिंग जब तक बेहतर नहीं होगा, रोजगार हवा में नहीं बनेंगे। रोजगार बनेंगे भी तो कम पैसे वाले, और कम स्किल वाले होंगे। सॉफ़्टवेयर वाले जॉब बनाकर आप बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं ला सकते, क्योंकि आपके तीन चौथाई बीटेक डिग्रीधारी नाकाम हैं। वो किसी काम के नहीं हैं। उनको लेने से पहले अब कम्पनियाँ कतराती हैं। वही हाल एमबीए वालों का है। पाँच से दस लाख रुपए लगाकर पढ़ने के बाद बारह हज़ार प्रति महीने की नौकरी करना किसी भी एंगल से उचित नहीं लगता। वो ये नौकरी बस इसलिए करता है कि वो कुछ तो कमा ले।
बीटेक, एमबीए कॉलेजों की भरमार होती रही, लेकिन उनके लिए नौकरियाँ कभी भी उतनी नहीं रहीं। इसीलिए इंजीनियरिंग की डिग्री वाले आपको हर तरह की नौकरी करते नज़र आएँगे जिसका इंजीनियरिंग से कोई वास्ता नहीं है। ऐसे कॉलेजों को खोलने से रोकना चाहिए, सिर्फ इसलिए कि लोग इसमें पैसा ना फँसाएँ क्योंकि नौकरी है नहीं। छात्रों को इस बात की जानकारी बार-बार दी जानी चाहिए कि इस सेक्टर में नौकरियाँ नहीं है, कुछ और करो। 60% इंजीनियरों के पास नौकरी नहीं है। 93% एमबीए वाले नौकरी के लायक नहीं हैं। उनके पास बस डिग्री है, किसी काम के नहीं हैं।
आँकड़ों की बात करें तो 2016 में 17.7 मिलियन, 2017 में 17.8 मिलियन, और 2018 में 18 मिलियन लोग बेरोज़गार रहेंगे। ये भारत के लिए यूएन का डेटा है। इसके लिए भारत सरकार से ज़्यादा वैश्विक मंदी ज़िम्मेदार है जिसमें सर्विस सेक्टर से हज़ारों लोगों को निकाला जा रहा है। आईटी बूम को नीचे आना ही था, और ये शुरू हो चुका है। पहले जहाँ इंजीनियरिंग में स्कोप था, वो अब अभिशाप हो चुका है।
सरकारी नौकरियों में ऐसा स्थगन आ गया है कि राज्य सरकारों से लेकर केन्द्र तक में डायरेक्ट भर्ती वाली नौकरियों में लगभग 90% गिरावट दर्ज की गई है। चयन आयोगों से होने वाली नौकरियाँ कहीं दो साल, तो कहीं तीन साल तक पीछे चल रहे हैं। शिक्षकों की नियुक्तियों पर रोक लगी हुई है। और कारण शायद कुछ भी बेहूदा सा दे दिया जाएगा। सरकारी नौकरियों में लगातार गिरावट आ रही है।
2000-01 में जहाँ केन्द्र और राज्य की सरकारी नौकरियाँ 1,06,00,000 थीं, वही 2011-12 में गिरकर 96,00,000 हो गईं। यूँ तो इसमें अर्धसरकारी, कॉन्ट्रैक्ट, लोकल बॉडी आदि की नौकरियाँ जोड़ेंगे तो 2,77,89,000 से बढ़कर 2,95,79,000 होती दिखेंगी लेकिन ये बहुत बड़ी वृद्धि नहीं है। क्योंकि बेरोज़गारों की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है। नौकरी भी उसी अनुपात में बढ़नी चाहिए, जो कि नहीं हो रहा।
इसका एक ही उपाय है, और वो है मैनुफ़ैक्चरिंग सेक्टर। जब हम कुछ बनाएँगे तो रोजगार पैदा होंगे ही। चाहे हम कृषि को फ़ायदेमंद बनाने के लिए कोशिश करें, या फिर अपनी ज़रूरतों की चीज़ बनाने के कारख़ाने देश में ही बनाएँ। आप अपना आयात जितना कम करेंगे, देश की अर्थ व्यवस्था उतनी ही सुधरेगी। साथ ही, चीज़ें बनाने में आत्मनिर्भर होने का मतलब है हज़ारों हाथों को नौकरी देना। लघु उद्योग, लोक कला की चीज़ों के उत्पादन आदि को सरकारी सहयोग मिलने से काम भी बढ़ेगा और आपकी लोक संस्कृति की परंपरागत चीज़ें भी गायब होने से बची रहेंगी।
और भी उपाय हो सकते हैं, लेकिन मुझे बहुत ज़्यादा समझ नहीं है इस बात की। जितना समझ में आया लिख दिया है। आपके पास और भी उपाय होंगे। बताते रहिए।
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