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असली मुद्दा क्या है श्रृंखला मुद्दा नंबर छः: स्वास्थ्य में हम वहाँ हैं जहाँ से हमको कुछ हमारी ख़बर नहीं आती

असली मुद्दा क्या है श्रृंखला       मुद्दा नंबर छः: स्वास्थ्य में हम वहाँ हैं जहाँ से हमको कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
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स्वास्थ्य सेवाओं की हमारे देश में दशकों से ऐसी स्थिति है कि इसके पिछड़े, बुरे या नाकाबिल होने को बताने के लिए आँकड़ों की ज़रूरत नहीं है। इसलिए मैंने हॉस्पिटल आदि की संख्या पर आँकड़ा देखने की ज़हमत नहीं उठाई है। कुछ चीज़ें इतनी ज़्यादा, और इतनी जगहों पर दिखती हैं कि आपको उस पर सोचने, लिखने के लिए आँकड़ों से ज़्यादा आँखों और कान पर विश्वास करना बेहतर होता है।

किस सरकार ने क्या किया, किसने कितना बजट दिया से ज़्यादा ज़रूरी ये जानना है कि लाखों बच्चे कुपोषण से मर रहे हैं, ग़रीबों को स्वास्थ्य सुविधा नहीं मिल रही, जिलों के सदर अस्पतालों में बस पोस्टमॉर्टम होता है या वही जाते हैं जो कहीं और नहीं जा सकते। सरकारी अस्पताल का मतलब है कि वहाँ डॉक्टर नहीं मिलेंगे, क्योंकि उनकी अपनी प्राइवेट क्लीनिक है, दवाइयों को बेचा जा चुका होगा, और मरीज़ों को रखने आदि की व्यवस्था लचड़ होगी।

हलाँकि बड़े शहरों में वही सरकारी अस्पताल बेहतरीन स्वास्थ्य सेवाएँ देते नज़र आएँगे। लेकिन छोटे शहरों में इन पर लोग विश्वास नहीं करते। एक ऐसा हौआ बनाया गया है कि सरकारी हस्पतालों में अच्छा इलाज नहीं होता। शायद ये बात एक हद तक सही भी है। यहाँ से आपको इम्यूनाइजेशन की सुइयों के अलावा कुछ और मिल जाए तो बहुत बड़ी बात है।

डॉक्टर-नर्स की कमी होने से लेकर, गंदगी, अव्यवस्था, बीमा सुविधा का ना होना, सरकार द्वारा बहुत कम ख़र्च करना, बचाव से रोकी जा सकने वाली बीमारियों से होने वाली मौतें, ग़रीबी के कारण कुपोषण आदि वो कारण हैं जिससे भारत सामूहिक स्तर पर जूझता नज़र आता है।

पिछले दशक में स्वास्थ्य पर ख़र्च बढ़ जरूर रहा है, लेकिन जीडीपी का मात्र 1.34 प्रतिशत ही है जबकि दुनिया का औसत 6.07 प्रतिशत है। इससे शायद आपको उतना अंदाज़ा ना हो। दूसरा आँकड़ा ये है कि वैसी बीमारियों से मरने वालों की संख्या इतनी ज़्यादा है, जिनसे बचाव किया जा सकता है, कि उससे देश के जीडीपी पर 6% का भार पड़ता है। इसको जोड़-घटाव कर लीजिए तो पता चलेगा कि हमलोग निगेटिव में हैं स्वास्थ्य पर ख़र्च के मामले में।

सत्तर साल हो गए आज़ादी के और आज भी डॉक्टरों और नर्सों की कमी पूरे देश में है। जो डॉक्टर हैं उनपर दबाव इतना ज़्यादा है कि वो कई बार सरकारी तंत्र को छोड़ जाते हैं। जो कुछ करना चाहता है, उसे सरकारें उपकरण और जगह तक नहीं दे पाती। ऐसे में सरकारी नौकरी से बेहतर है प्राइवेट जहाँ पैसों की कमी नहीं है, और आपके हाथ में है कि आप अपने लिए कैसी सुविधाएँ जुटा पाते हैं।

तम्बाकू से मरने वालों की संख्या हर साल 10 लाख के क़रीब है। 45,000 महिलाएँ बच्चा जनने के दौरान मर जाती हैं हर साल। 11 लाख लोग समय से पहले वायु प्रदूषण के कारण मर जाते हैं। डायरिया से 3 लाख बच्चे हर साल मरते हैं। 20 लाख बच्चे उन इन्फेक्शन्स से मर जाते हैं जिनसे उन्हें बचाया जा सकता है। 17 लाख से ज़्यादा बच्चे साल भर के होने से पहले मर जाते हैं। इम्यूनाइजेशन में फ़ंड की लगातार होती कमी का मतलब से है कि पैदा होने वाले बच्चों में मात्र 43.5% को सारे टीके लग पाते हैं। डेंगू, मलेरिया, टीबी, हैपेटाइटिस, निमोनिया जैसे रोग हर साल फैलते हैं, और लाखों मौतों का कारण बनते हैं।

साफ़ पानी ना मिलने के कारण पेट-संबंधी रोगों से लोग मरते रहते हैं। खुले में शौच करने से होने वाली बीमारियों से मरने वालों की संख्या कम नहीं है। हलाँकि इस ओर मोदी सरकार द्वारा उठाया गया क़दम सराहनीय है। गर्भवती महिलाओं को अभी भी पूर्णतः स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं मिलती। उन्हें ना तो गर्भावस्था में उचित सुविधाएँ, पोषक तत्व आदि मिलते हैं, ना ही जनन के बाद। ग्रामीण इलाक़ों में तो और भी बुरी हालत है।

कुल मिलाकर कहना ये है कि ये सब दिक़्क़तें सबको पता हैं, समाधान क्या है। समाधान समस्याओं में ही छुपा है। सरकार को स्वास्थ्य को लेकर अपनी सोच बदलनी होगी। सबसे पहला ध्यान बच्चों और माताओं की स्वास्थ्य सेवाओं पर देना होगा कि उनको सारे टीके लग रहे हैं या नहीं। जैसे आँगनबाड़ी के ज़रिए आइरन की गोलियाँ, आशा बहुओं द्वारा टीबी की दवाईयाँ रोगियों तक पहुँचाई जाती हैं, वैसे ही हर बच्चे को घर जाकर टीके देने होंगे। हमने अगर पोलियो पर जीत पा ली, तो ये भी संभव है।

आधी मौतें इसी से रुक सकती हैं। इसके साथ ही साफ़ पानी, शौचालयों की व्यवस्था कराने से एक चौथाई मौतें कम हो सकती हैं। तम्बाकू उत्पादों की बिक्री पर और कड़े क़दम उठाने होंगे। या तो इसे प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, जो कि यहाँ संभव नहीं, या फिर लोगों को इससे दूरी बनाने के लिए प्रेरित करने की कोशिश होती रहनी चाहिए। टीबी, कुपोषण, जलजनित रोग इस देश में सबसे ज़्यादा मौतों के ज़िम्मेदार हैं। इन मौतों को रोका जा सकता है। इससे दो फ़ायदे हैं, पहला ये कि मरने वालों की संख्या घटेगी; दूसरा ये कि सरकार का इन रोगों पर होने वाला ख़र्च बचेगा।

आप सोचिए कि बचाव से रोकथाम करते हुए सरकार बचे पैसों को स्वास्थ्य पर ख़र्च करने लगे तो लगभग 7% तक ख़र्च चला जाएगा स्वास्थ्य पर। और उस स्थिति में स्वास्थ्य सुविधाएँ बेहतर भी होंगी, मुफ़्त भी, और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को इनका लाभ भी मिलेगा। इसके बाद सरकार उन बीमारियों पर अपना ध्यान लगा सकती हैं जो जीवनशैली के कारण होते हैं, या जिन्हें पहले ही चरण में रोका जा सकता है। आज भी हार्ट-अटैक से मरने वालों की संख्या चिकित्सा संबंधी मौतों में सबसे ज़्यादा है। वैसे ही स्तन कैंसर लगातार अपनी पैठ बना रहा है जिसका पता पहले ही चरण में चल जाय तो जान बचाई जा सकती है।

दूसरी बहुत बड़ी समस्या ये है कि आज भी ग़रीबों को जेब से पैसे निकाल कर देने होते हैं इलाज के लिए। उन्हें किसी भी तरह की स्वास्थ्य बीमा का लाभ नहीं मिल रहा। सरकार को बीमा कंपनियों को इस तरफ ध्यान देने को प्रेरित करना चाहिए। चूँकि हमारी जनसंख्या ज़्यादा है तो समस्याएँ भी ज़्यादा होंगी, लेकिन हम कई क़दम उठाकर उसे कम कर सकते हैं। बीमा की सुविधा होने से गरीब और ग्रामीण परिवारों तक स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ पहुँचाया जा सकता है। आज भी भारत में अमीर लोग मुफ़्त स्वास्थ्य सुविधा का लाभ ग़रीबों के अनुपात में ज़्यादा ले रहे हैं।

तीसरा क़दम सरकार को मेडिकल शिक्षा को लेकर उठाना चाहिए। हमें बहुत बड़ी संख्या में डॉक्टरों की ज़रूरत है। हर जिले में मेडिकल कॉलेज-हस्पताल होने से ये समस्या सुलझ सकती है, इसके लिए बहुत बड़े निवेश की ज़रूरत है लेकिन भविष्य को ध्यान में रखते हुए ये फ़ायदे का सौदा है। मेडिकल कॉलेज के साथ ही गाँवों में प्राइमरी हेल्थ सेंटर में डॉक्टरों के लिए पर्याप्त सुविधाएँ ज़रूरी हैं ताकि डॉक्टर गाँव में काम करने से पीछे ना हटें। अबी उनकी सबसे बड़ी समस्या यही है कि उनके काम करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं है।

साथ ही, गाँवों में सड़क आदि ना होने के कारण प्राइमरी हेल्थ सेंटर से रेफर किए जाने वाले रोगियों को समय रहते शहर के अस्पताल तक नहीं पहुँच पाने से हुई मौतों के कारण डॉक्टरों की सुरक्षा ख़तरे में पड़ जाती है। गाँव में बैठा डॉक्टर जितना हो सके करता है, लेकिन उसके पास साधन ना हों, और उसकी सुरक्षा की व्यवस्था ना हो तो कोई भी जान जोखिम में डालकर नहीं जाना चाहेगा। ये सारी बातें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं।

अभी भी हमारी जनसंख्या बहुत ही रूढ़िवादी है। उसके घर तक जब तक टीकाकरण, साफ़ पानी, शौचालय आदि नहीं पहुँचेंगे, तब तक इनके कारण होने वाली बीमारियों से ना तो बचाव हो पाएगा, ना ही उन मौतों को कम किया जा सकेगा। स्वास्थ्य को लेकर सोच बदलने की ज़रूरत है, सरकार और नागरिक दोनों को। जब तक नयी सोच के साथ रोडमैप बनाकर आगे नहीं बढ़ा जाएगा तब तक लोकलुभावन 'जेनेरिक दवाई' और फलाने दवाईयों के मूल्य कम कर देने वाली बातों के लॉलीपॉप से कुछ ख़ास नहीं होने वाला। नेशनल हेल्थ पॉलिसी एक जुमला बनकर रह जाएगी और देश का पैसा, समय और जानें बर्बाद होती रहेंगी।
अजीत भारती


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