Janta Ki Awaz
व्यंग ही व्यंग

सरकार को आईना दिखाते आंकड़े

सरकार को आईना दिखाते आंकड़े
X
नोटबंदी एकदम शेखीबाजी थी। लगभग आधी रात के हमले की तरह यह घोषणा करके कि ऊंचे मूल्य के नोट अब नहीं चलेंगे, अर्थव्यवस्था को अफरातफरी में डालने का कोई कारण नहीं था। बहुत-से लोगों से बातचीत के बाद मैंने भविष्यवाणी की थी कि अर्थव्यवस्था को एक से डेढ़ फीसद की चपत लगेगी। मैं सही साबित हुआ, यह मेरे लिए कोई खुशी की बात नहीं है।

विपक्ष की बात
केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) द्वारा 31 मई 2017 को जारी किए गए आंकड़ों ने विपक्ष की बात को सही ठहराया है :
* देश की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 2016 के मध्य से (दूसरी तिमाही की शुरुआत से) धीमी पड़ने लगी थी; नोटबंदी ने हालत और खराब कर दी।
* सकल मूल्य वर्धन (जीवीए) अर्थव्यवस्था के आकलन का नया पैमाना है। जीवीए की वृद्धि दर 2015-16 में 7.9 फीसद थी, जो कि घट कर 2016-17 में 6.6 फीसद हो गई। अर्थव्यवस्था को तीन फीसद की चपत लगी।
* 2015-16 की चौथी तिमाही और 2016-17 की चौथी तिमाही के बीच जीवीए की वृद्धि दर में प्रति तिमाही 3.1 फीसद की भारी कमी आई (8.7 फीसद से 5.6 फीसद)। यह मानव-कृत आपदा थी।
* 2011-12 के नए आधार वर्ष पर, जीडीपी में 0.9 फीसद की कमी आई (2015-16 में 8.0 फीसद से 2016-17 में 7.1 फीसद)।
अगर आप सीएसओ द्वारा जारी किए गए आंकड़ों को और खंगालें, तो आपको बेचैन करने वाली और भी कई चीजें दिखेंगी। कोर सेक्टर की वृद्धि दर औद्योगिक गतिविधि को मापने का कहीं बेहतर पैमाना है। यह वृद्धि दर 2015-16 की चौथी तिमाही में 10.7 फीसद थी, जो कि गिर कर 2016-17 की चौथी तिमाही में 3.8 फीसद पर आ गई। खनन, मैन्युफैक्चरिंग, बिजली, निर्माण, व्यापार, होटल-व्यवसाय, परिवहन, संचार, वित्त, रीयल एस्टेट और पेशेवर सेवाओं में गिरावट दर्ज की गई। इनमें से निर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर 2016-17 में 3.7 फीसद तक सिकुड़ गई, जो कि रोजगार-सृजन के लिहाज से दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है (यानी रोजगार का नुकसान हुआ)।
2016-17 में जीडीपी के अनुपात में कुल नियत पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ), स्थिर कीमतों पर, 29.5 फीसद था, जबकि इसके पहले के दो साल में यह 30.9 फीसद और 31.3 फीसद रहा था। सरकार ने निवेश में कमी आने की बात को एफडीआइ के आंकड़ों का हवाला देते हुए साफ खारिज कर दिया था। अब असलियत सामने आ गई है।

तीन बड़ी नाकामियां
इन सबसे मेरे उन तर्कों की पुष्टि हुई हैं जिन्हें मैं हफ्तों से रखता रहा हूं- कि जीडीपी के अनुपात में निवेश में गिरावट, ऋणवृद्धि में सुस्ती और रोजगार के नए अवसर पैदा न होना, इन मसलों को सुलझाने में सरकार एकदम नाकाम हुई है।
ये रुझान 2016 के शुरू में और मध्य में ही दिख गए थे। इन मुद््दों का सामना करने के बजाय सरकार ने मुख्य आर्थिक सलाहकार को दूर रखते हुए नीमहकीमों की सलाह पर यकीन किया, और ऊंचे मूल्य के नोटों को अमान्य करके, 1,544,000 करोड़ रु. सिस्टम से खींच कर, अर्थव्यवस्था को भंवर में डाल दिया। सरकार ने तीन मकसद बता कर नोटबंदी को सही ठहराने की कोशिश की- काले धन का खात्मा, जाली नोटों का खात्मा, और आतंकवाद का खात्मा। ये वांछित मकसद थे, पर हुआ यह कि इनमें से एक भी मकसद नोटबंदी से नहीं सधा। भ्रष्टाचार के खात्मे का मकसद भी बताया गया था, पर सरकारी अफसरों के यहां से दो हजार रुपए के नए नोटों की अनगिनत जब्ती के बाद इस मकसद का जिक्र छोड़ दिया गया।

नगदी की वापसी
नोटबंदी के जो मकसद शुरू में बताए गए थे उन्हें बड़ी चतुराई से छोड़ कर डिजिटलीकरण और कैशलेस अर्थव्यवस्था की अव्यावहारिक परिकल्पना की तरफ मोड़ दिया गया। नगदी-रहित लेन-देन में तेजी आई और बड़ी तादाद में लोग इसमें शामिल हुए। वह तेजी तात्कालिक थी, क्योंकि नगदी उपलब्ध नहीं थी। जब नगदी उपलब्ध हो गई, डिजिटलीकरण का गुब्बारा फूट गया। रिजर्व बैंक के आंकड़ों पर नजर डालें, जो कि लगभग उसी समय जारी हुए जब सीएसओ के आंकड़े आए। नवंबर 2016 से माहवार इलेक्ट्रॉनिक भुगतान के आंकड़े इस प्रकार हैं:
माह इलेक्ट्रॉनिक भुगतान (रु. करोड़ में)
नवंबर 9,400,400
दिसंबर 10,405,500
जनवरी 9,701,100
फरवरी 9,259,400
मार्च 14,958,900
अप्रैल 10,960,200
मई (28 तक) 9,421,400
लेन-देन के प्राथमिक माध्यम के रूप में नगदी वापस आ गई है। किसी दिन रिजर्व बैंक को जरूर यह खुलासा करना चाहिए कि कितनी मात्रा/मूल्य के विमुद्रीकृत नोट उसके पास वापस आए। उसे लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नगदी भी उपलब्ध करानी चाहिए। जब दोनों तरह के आंकड़े आ जाएंगे तो नोटबंदी की जय बोलने वाले भी देखेंगे कि भारत 8 नवंबर 2016 से पहले के दिनों में लौट गया है, और तब वे एक अनिवार्य सवाल पूछेंगे: 'अर्थव्यवस्था को अफरातफरी में तथा करोड़ों लोगों को मुसीबत में डालने के सिवा नोटबंदी से कौन-सा मकसद सधा?'
अब सरकार लोगों को बेवकूफ बनाना बंद करे, यह कह कर कि अर्थव्यवस्था एकदम ठीक चल रही है और मौजूदा नीतियां कारगर हैं। जबकि ऐसा है नहीं। सरकार को काबिल अर्थशास्त्रियों की सलाह मानते हुए अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के काम में जुट जाना चाहिए। उचित सलाह दे सकने लायक एकमात्र अरविंद सुब्रमण्यन सरकार के पास हैं और उनकी सलाह से वह काम शुरू कर सकती है।
Next Story
Share it