दिल्ली से हावड़ा वाली "पूर्वा एक्सप्रेस " में हूँ।
BY Suryakant Pathak4 Aug 2017 7:42 AM GMT

X
Suryakant Pathak4 Aug 2017 7:42 AM GMT
15-17 साल से इस ट्रेन का झेलहा पसेंजर रहा हूँ। इतने सालों में क्या क्या नहीं बदला,देश बदला..दुनिया बदली।इंसान तो कब पल में बदल जाय गारंटी नहीं लेकिन नमन है "पूर्वा एक्सप्रेस" को, इसने दशकों से लेट चलने वाली अपनी परंपरा को आज तक सफलता पूर्वक निभाया है और तब से आज तक लेट लतीफी का अपना चरित्र नहीं बदला।
साब चारों दिशाएं बदल गईं,पूर्वा नहीं बदली।
आज अभी दिल्ली स्टेशन से खुलने में ही घंटे भर लेट हो चुकी है।बिना चले खड़े खड़े ही घंटे भर लेट हो के इसने दिखाया है कि जहां लोग सदियों की परम्परा को पल में भूल आगे बढ़ जाते हैं वहां कैसे इसने पूरी प्रतिबद्धता के साथ अपने पुराने चरित्र को आज तक मेंटेन रखा है।
बुलेट ट्रेन आने के आहट के बीच भी इसका आत्मविश्वास तनिक भी नहीं हिला है और ये अपनी चाल ढाल के साथ बिना कोई समझौता किये आज भी पटरी पर शान से रेंगती है।
पूर्वा लेकिन जान लीजिए,कुछ मामले में अपूर्व अर्थों वाला ट्रेन है। ये ट्रेन अपने चढ़ने वाले हम जैसे हज़ारों रेगुलर सवारी का समाजशास्त्र,अर्थशास्त्र सब जानती है,उसका परिवेश जानती है।
वो 25-30 हज़ार खट मर के कमाने वाली जमात को जब ac में बैठता देखती है तो जानती है साल दो साल में बाल बच्चा रंग बिरंगा बक्सा समेट घर जाने वाले ये लोग किसी हड़बड़ी में नहीं।ये कलेजा काट के मौज काट रही हज़ारों रूपये खर्च ac में जा रही जमात को जम के ac में बैठने और मज़ा लेने का मौका देती है।
ये जानती है कि ये चिप्स झालमुड़ी खाते और रेल नीर पीते यात्रा कर रही भीड़ छुट्टी पर है, दिन भर खटने मरने से कुछ दिन की छुट्टी पर है और घर जा रही है। ऐसे में धीमे धीमे चल रही पूर्वा एक्सप्रेस असल में आदमी के अंदर भागम भाग कर रहे बेचैन आदमी को रफ्ता रफ्ता सहलाते हुए सुला देती है।
मेरे बगल एक 35 वर्ष का लड़का है,उसने ट्रेन खुलते घर फ़ोन किया है " हाँ हल्लो, के रुन्नी, हाँ अरे ट्रेन खुल गया है..हाँ एक घंटा लेट है। ac 2 में ले लिए हैं।हेल्लो ac 2 में।हाँ हेलो..हेलो आवाज जा रहा है?बोले कि ac 2 में हैं।"
ये है पूर्वा का वो आम भारतीय हर्षित उल्लसित पसेंजर..जहां ac यात्रा नहीं,उपलब्धि है।
बगल एकदम सामने में राजधानी एक्सप्रेस खुली है।जो लोग अपने लोगों को छोड़ने आये थे वो गेट से झांकते परिजन को बाय बाय कर रहे हैं..ट्रेन तेज़ी से प्लेटफार्म छोड़े जा रही है।
इधर पूर्वा एक्सप्रेस जब खुली है तो नजारा देखिये, लोग हाथ हिला अपने परिजन को विदा कर रहे हैं..ट्रेन खुल चुकी है,उन्हें लगता है ट्रेन जा रही है कि तभी ट्रेन चार कदम चल फिर रुक जाती है...हाथ हिला के बाय करता आदमी फिर दौड़ता है ट्रेन की तरफ,ट्रेन का सवारी नीचे उतरता है और फिर गले लगता है,फिर आधा घंटा ख़ुशी ख़ुशी गप करता है।
ये है पूर्वा एक्सप्रेस..ये आपके हमारे जज्बात की चाल समझती है और उस पर अपनी चाल न्यौछावर कर देती है।आप ना भी रोकें तो भी रुक जाती है कि, "ले भाई और गले लग लो भैया..अच्छे से मिल लो।"
कभी कभी तो पूर्वा एक्सप्रेस ऐसी चाल में चलती है कि अगर मोबाइल में नदिया के पार का गीत @कौन दिशा में ले चला रे बटोहिया लगा दें तो आपको फ़ील होगा कि आप सचिन हैं और साधना सिंह के बिना ही बैलगाड़ी हांक रहे हैं।
इसी बीच मेरे सामने बैठे 2 बुजुर्ग बिछौना खोल बिछा दिए हैं।
तभी एक जोड़ी आयी है, पसीना से तरबतर।
लड़के ने कहा है"रुमाल लाओ"
लड़की ने अपने गोल्डन रंग के दो बित्ते चौड़े पर्स से एक पिंक कलर का रुमाल निकाल के दिया है।
छोटा सा प्यारा सा आधे बित्ते का रुमाल है, एक बार में एक गाल पोंछने जितना साइज़ का है।लड़के ने तीन बार में अलग अलग कर दोनों गाल पोछा है जिसमे एक गाल आधा ही पोछाया है। रुमाल उसने वापस दिया है,उससे फिर लड़की ने गाल पोछा है।
असल में नये जोड़ों को ये सब रुमाली प्यार इसलिए भी दिखाना पड़ता है कि अगल बगल बैठे बुजुर्ग कम से कम ये समझ सकें कि लड़की लड़के की अपनी पत्नी है और लड़का अपना निजी पति।
क्योंकि आजकल बूढ़े बौराने लगे हैं..परंपरा संस्कृति के नाम पर हर चीज़ को संदेहवाद के चश्मे से देखना सनक बन चुका है..ये आपस में काना फुसी करने लगते हैं, "भगा के लाया है क्या?ले के भाग रहा है क्या?लड़किया चालू है,लड़कवा चालू है,साला दुनो चालू है ?दुनो ठीक नहीं बुझा रहा है...अल बल अल् बल यही सब। आजकल बूढ़े कूड़े की भाषा बोलने लगे हैं, fb पर कई पोस्ट के चर्चे में कई सड़ी गली बुढ़ौती की घिन मचाती गंध को आप देख सकते हैं।
तभी ठीक सामने एक लड़का आया है।पैर के चमड़े में जिंस ऐसे सटा प्रतीत हो रहा है जैसे दीवाल में वाल पेपर सटा हो,और गर्म करके चीप के साटा गया हो।इसने एक काले रंग का चमड़ा का जूता पहना है,जूता इतना चमचम कर रहा है और इतना लंबा नुकीला और सजीला है कि अगर ये जूता पहन श्रीराम मिथिला में बरात ले आये होते तो इस जूते की चोरी पर इसे पाने के लिए वो अपने सालियों के लिए अयोध्या राज लिख देते।
लड़का कान में ब्लू टूथ यानि नील दन्त खोंसे मगन हो किसी अज्ञात गाने पर मुड़ी हिला रहा है, कुल मिला अभी तक में ये लड़का इस बोगी का सबसे बड़ा आकर्षण है।ठीक उसी तरह जैसे किसी हिंदी की पत्रिका में चेतन भगत का छपा इंटरव्यू सबसे बड़ा आकर्षण होता है।
लड़के ने अपर सीट पर घोल्टी मार,मोबाइल का तार बिजली से जोड़ खुद में ऊर्जा डाल दी है, ये देश की नयी ऊर्जा है, चार्जर से चार्ज होती है और वीडियो देखते सुनते डिस्चार्ज होती जाती है।
...जब स्टेशन पे नीचे था लोग वेटिंग लिस्ट का पर्चा ऐसे देख रहे थे जैसे पटना में 9 साल से संघर्ष कर तैयारी कर रहा बाप से गाली खाया दुनिया से निराश बेरोजगार लड़का रेलवे के गैंगमेन परीक्षा का आया रिजल्ट देख रहा हो, अपना नाम देख लोग उछल जाते हैं,दौड़ जाते हैं..जहां रेलवे की यात्रा लिस्ट क्लियर होने पर जनता खुशी से लहालोट हो जाये वहां विकास और उन्नति की लिस्ट बनना और उसमें अपना नाम देखना अभी दूर की कौड़ी है।
इसी सब के बीच ओह्!आह!पूर्वा एक्सप्रेस धीमे धीमे डोल डोल के चल रही है..आस पास लोग बुदबुदाने लगे हैं"ओह् बहुत लेट करेगा ये,गलती हो गया राजधानी छोड़ के।राजधानी बेकार में छोड़ दिए।"
ये सेट डायलोग होता है पूर्वा के हर ac पसेंजर का जो बड़ी मुश्किल से सरक के स्लीपर से ac तक आये होते हैं।
इन्हें जब ये बोलता सुनता हूँ कि "ओह् राजधानी छूट गया" तो सोंचता हूँ कि, इन्हें पता भी नहीं कि असल में खाने कमाने की मज़बूरी में कब अपनी मिट्टी और अपना गांव छोड़ आये इन लोगों से असल में राजधानी नहीं बल्कि अपना घर गांव छूट गया।
काश अगर हमारी सरकारों ने हमें इन्हें घर के खेत में मुनाफा दे दिया होता, दरवाजे से दस कदम पर स्कूल और अस्पताल दे दिया होता,गांव में ही रोजगार दे दिया होता तो इन्हें छुटे हुए घर से दूर राजधानी की भीड़ में किसी कोने पसीने बहाते हुए पत्थर न तोड़ना होता,कुर्सी पर बैठ कर भी मजदुर की तरह कमर न तोड़ना होता।रोटी तोड़ने के लिए आदमी को टूटना होता है..आदमी टूट रहा है।
फ़िलहाल चलिये.. पछिया के आँधी में फंसी दुनिया के बीच इस पूरब की ओर जा रही इस पूर्वा का हौले
हौले चलना बड़ा शीतल अहसाह है..एक गीत कान में बज रहा.."सईयां मोरा गईले हो रामा पुरुब के देशवा........ " पूर्वा पूरब के ओर लिए जा रही है, मैंने दोनों हाथ पांव ढीला छोड़ दिया है।रफ़्तार कैसी भी हो,मुझे पूरब की ओर जाती कोई भी चीज़ बहुत भाती है...... रेलिया संघतिया पूरब लिये जाय रे...जय हो।
नीलोत्पल मृणाल
Next Story