महाभारत से: गुरुभक्त आरुणि, उपमन्यु और वेद की कथा : अजीत भारती
BY Suryakant Pathak18 Aug 2017 2:09 AM GMT

X
Suryakant Pathak18 Aug 2017 2:09 AM GMT
गुरुभक्त आरुणि के बारे में तो हम सब ने बचपन में किताबों में पढ़ा है। लेकिन महाभारत के आदिपर्व के तीसरे अध्याय - 'पौष्य पर्व' - में उन्हीं के दो और मित्रों, उपमन्यु और वेद, का वर्णन आता है कि गुरू की सेवा कैसे की जानी चाहिए, और उसका फल क्या मिलता है। उपमन्यु की परीक्षा सबसे ज्यादा कष्टकारक थी।
आयोदधौम्य ऋषि के तीन शिष्य थे - आरुणि पाञ्चाल (पाञ्चाल देश से जहाँ से द्रौपदी थीं, और उनका एक नाम पाञ्चाली भी है), उपमन्यु और वेद। एक दिन गुरुदेव ने आरुणि से कहा कि वो जाए और खेतों की टूटी क्यारियों को ठीक कर दे। आरुणि खेत पर पहुँचे और क्यारियों को बाँधने लगे। एक जगह ज्यादा टूटी होने से वहाँ मिट्टी रखते ही जल के वेग से बह जाती थी।
फिर आरुणि सोचने लगे कि क्या करें। तभी उन्हें एक विचार आया और उन्होंने मन ही मन कहा कि यही उपयुक्त रहेगा। मेड़ पर से बहते पानी को रोकने हेतु वो स्वयं ही वहाँ लेट गए। शाम हो गई तो गुरुजी ने बाकी के शिष्यों से आरुणि के बारे में पूछा। एक ने ध्यान दिलाया कि उसे तो खेत की क्यारियों को सँभालने का कार्य दिया गया था।
ऋषि को याद आया और बोले कि वहीं चलकर देखा जाय कि वो अभी तक क्या कर रहा है। पहुँच कर आवाज़ दी, "पुत्र आरुणि, कहाँ हो वत्स!" आरुणि मेड़ से उठकर उपस्थित हुए, गुरु को नमस्कार किया और पूरी बात बताई। गुरु प्रसन्न हुए और कहा कि सम्पूर्ण वेद और समस्त धर्मशास्त्रों का ज्ञान इस गुरुभक्ति के आशीर्वाद रूप में स्वतः ही आरुणि के मस्तिष्क में प्रकाशित हो जाएँगे।
अगले दिन उन्होंने उपमन्यु को बुलाया और कहा, "पुत्र आज से तुम गायों का ध्यान रखा करो।" उपमन्यु ने गुरु की आज्ञा ली और चले गए। वो हर दिन गायों की देखभाल करते और शाम को गुरु के घर पर उपस्थित होकर नमस्कार करते। कई दिन होने पर, एक संध्या उपमन्यु के आने पर गुरु ने पूछा, "पुत्र तुम बहुत हृष्ट-पुष्ट दिखते हो। अपनी जीविका कैसे चलाते हो?"
उपमन्यु ने कहा कि वो भिक्षा से जीवन निर्वाह करते रहे हैं। तब गुरुदेव ने कहा कि बिना गुरु को अर्पण किए भिक्षा का अन्न अपने उपयोग में नहीं लाना चाहिए। 'जी बहुत अच्छा' कहकर उपमन्यु चले गए। अगले दिन से वो भिक्षा लाते और गुरु को अर्पण कर देते। गुरु सारी भिक्षा अपने पास रख लेते और उन्हें कुछ न देते।
कुछ दिन बीतने पर उनके शरीर में वैसी ही पुष्टता देखकर गुरु ने दोबारा पूछा, "पुत्र! मैं तो तुम्हारी सारी भिक्षा रख लेता हूँ, फिर भी तुम इतने हृष्ट-पुष्ट ही हो जैसे पहले थे। ऐसा क्यों?" उपमन्यु ने बताया कि वो भिक्षा अर्पण करने के बाद दोबारा भिक्षाटन पर निकलता है और उससे जीवन-यापन करता है। गुरु ने फिर कहा, "वत्स! ऐसा करते हुए तुम दूसरे लोगों की जीविकोपार्जन में बाधा डाल रहे हो। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।" 'बहुत अच्छा' कहकर उपमन्यु चले गए।
कुछ दिन बाद फिर गुरु ने उनकी शारीरिक अवस्था में कोई परिवर्तन ना देखकर वही सवाल किया। उपमन्यु ने बताया कि वो गायों के दूध पीकर रहते हैं। गुरु ने कहा कि उन्होंने तो गाय के दूध पीने की आज्ञा नहीं दी थी, अतः गाय का दूध पीना अनुचित है। 'बहुत अच्छा' कहकर उपमन्यु चले गए।
एक संध्या नमस्कार करने को उपस्थित होने पर वैसी ही स्थिति देखकर गुरु ने फिर पूछा, "वत्स! तुम भिक्षा का अन्न मुझे अर्पण कर देते हो, दोबारा भिक्षा माँग कर खाते नहीं, गाय का दूध भी तुम नहीं पीते फिर भी तुम्हारी शारीरिक दशा वैसी ही कैसे है?" उपमन्यु ने कहा, "भगवन्! मैं बछड़ों के द्वारा उनकी माताओं के दूध पीने के बाद उनके द्वारा उगल दिए गए फेन को पीकर रहता हूँ।"
"ये बछड़े उत्तम गुणों से युक्त हैं। अतः तुम पर दया करके वो दूध पीते हुए ज्यादा फेन उगल देते होंगे। तुम बछड़ों की जीविका में बाधा प्रकट कर रहे हो। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।" 'बहुत अच्छा' कहकर उपमन्यु चले गए।
जीविका के सारे साधन बंद होने पर उपमन्यु भूखे रहने लगे और दुर्बल हो गए। एक दिन जंगल में बैठे हुए बुभुक्षा से पीड़ित होकर उन्होंने आक के पत्ते चबा लिए। आक के पत्ते पेट के लिए अत्यंत दुःखकारी होते हैं। परिणाम यह हुआ कि उपमन्यु अंधे हो गए। भटकते हुए रास्ता ना दिखने के कारण एक कुएँ में जा गिरे।
शाम को शिष्य के ना आने पर गुरु को चिंता हुई तो शिष्यों से पूछा तो पता चला कि वो गायों को चराने वन गए थे। गुरु ने कहा, "लगता है मेरे द्वारा जीविका के सारे मार्ग बंद करने पर वह अवश्य ही रूठ गया है। चलो उसे ढूँढा जाय।" ऐसा कहकर सब खोजने निकले। वन में गुरु ने नाम लेकर पुकारा तो उपमन्यु ने कुएँ से बताया कि वो आक के पत्ते खाकर अंधा हो गया और कुएँ में गिर गया था।
गुरु वहाँ पहुँचे और उसे अश्विनीकुमारों का आह्वान करने को कहा कि वो उसे उसके आँखों की ज्योति लौटा देंगे। उपमन्यु ने वैसा ही किया और दोनों प्रसन्न हुए, "पुत्र हम तुम पर प्रसन्न हैं, तुम ये पुआ खा लो।" उपमन्यु ने कहा कि वो बिना गुरू की आज्ञा के नहीं खा सकता। अश्विनीकुमारों ने कहा कि उसके गुरु स्वयं ही वैसे पुए खा गए थे, और अपने गुरु से नहीं पूछा था। उपमन्यु ने दोबारा वही बात कहते हुए मना कर दिया।
फिर प्रसन्न होकर उन्होंने कहा, "तुम्हारे गुरू के दाँत लोहे से काले हैं, तुम्हारे दाँत सोने जैसे हो जाएँगे। तुम्हारे नेत्रों की ज्योति भी वापस मिल जाएगी। तुम्हारी गुरुभक्ति के कारण तुम्हारा कल्याण होगा।" उसके बाद उपमन्यु की आँखें ठीक हो गईं और वो गुरु के पास पहुँचे और नमस्कार कर पूरी बात सुनाई।
गुरु ने कहा, "जैसा अश्विनीकुमारों ने कहा वैसे ही तुम्हारा कल्याण होगा। तुम्हारे मस्तिष्क में सारे वेद और समस्त धर्मशास्त्र स्वतः स्फुरित हो जाएँगे।" बाद में उपमन्यु को गुरुदेव ने कहा कि ये उसकी परीक्षा थी।
तीसरे शिष्य की परीक्षा यूँ हुई कि वेद को गुरु ने कहा कि वो उनके घर में कुछ समय रहे और सदैव उनकी सेवा में लगा रहे, इसी से उसका कल्याण होगा। वेद 'बहुत अच्छा' कहकर सेवा में लग गए। उन्होंने सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास की परवाह किए बिना गुरु द्वारा बैलों की तरह कार्य कराने पर भी लगातार ही लगे रहे। कभी एक शब्द नहीं कहा। गुरु ने प्रसन्न होकर वही आशीर्वाद दिया।
तत्पश्चात, वेद स्नातक होकर वापस अपने घर को लौटे। वहाँ उनके तीन शिष्य उनके घर में रहते थे लेकिन गुरु के घर में रहने पर कितना कष्ट होता है ये जानने के कारण आचार्य वेद ने कभी भी उन्हें 'सदैव मेरी सुश्रूषा में लगे रहो' जैसा आदेश नहीं दिया। उनके शिष्य उत्तंक की बात फिर कभी।
अजीत भारती
Next Story