खुले में शौच : रिवेश प्रताप सिंह
BY Suryakant Pathak18 Aug 2017 2:12 AM GMT

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Suryakant Pathak18 Aug 2017 2:12 AM GMT
बचपन से ही शहर में रहने के कारण गांव जाना, कम ही हो पाता था। साल में दो चार बार.........शादी-विवाह, मरनी-करनी के कारण दो-तीन-दिन रुकने का भी सुअवसर मिलता था। गांव का उन्मुक्त वातावरण, हरियाली, बीघों खेलने के मैदान यह सब मुझको अपने आकर्षण में बांध लेते थे। खेल-कूद, धमाचौकड़ी और गप्प-ठहाके में सुबह से कब शाम हो जाती थी कुछ पता ही नहीं चलता था। लेकिन पता चलना तब शुरू होता था जब शाम ढलनी शुरू होती थी. जब चारो ओर अंधेरे से झींगुर झंकारते थे. जब दूर खेत से आती इंजन की डुगडुग्गी मन में निरसता घोल देती थी। ढीबरी और टार्च के भरोसे कदमों की रफ्तार सुस्त पड़ जाते थे। उस नीरवता के बीच शरीर के लगभग मध्य से एक चिंता सवार होकर मस्तिष्क तक आच्छादित हो जाती थी। दबाव और तनाव की उस प्राकृतिक समस्या का नाम था--"खुले में शौच" सत्य तो यह है कि खुले में शौच की चिंता रात्रि से ही मस्तिष्क में तनाव घोल देती थी और रात की खुराक इस डर से दो रोटी कम हो जाती थी कि कहीं रात में ही उठ कर मैदान न तलाशना पड़े। रात कट भी गई तो यह चिंता, कि सुबह समय से उठना है जिससे कि खेतों में काम पर पहुंचने वालों से पहले ही आप हल्के होकर चले आयें। यदि दिन चढ़ते तक नींद नहीं खुली तो शौच नहीं, वहाँ की चहलकदमी के बीच तमाशा बन जाने का भय अलग से सताता था।
जिन घरों में शौचालय मौजूद थे वहां लोग यह मान चुके थे कि यह विभाग जनाना के लिये आरक्षित है। यदि संकोच का किवाड़ तोड़ कर, हम शौचालय जाने की इच्छा भी व्यक्त कर दिये तो पुरूष वर्ग द्वारा रगेद दिये जाते थे।
"बतावअ मेहरारू लेंखा चूल्ही में जाये के कहत बाटें......" उसके बाद मेरे शहराती होने के बीस ताने......" जा मरदवा खेते में हो के अइब की..."अरे तनि मर्द बनअ"........" अब बताइये साहब ! खुले में शौच करना कौन मर्दानगी थी भला! आंय?
अब आदमी करे भी क्या ? जब सारे रास्ते बंद कर दिये जायें? तो हम मजबूर हो कर डिब्बा लटकाकर चल देते थे किसी महफूज जगह की तलाश में मगर समस्याएँ तो तब तक मेरे समानांतर चलतीं थीं जब तक कि दबाव कम न हो जायें।
अब आइये सबसे पहले हम उन समस्याओं पर बात करते हैं जो खुले में शौच के साथ चुनौती बन कर खड़ी रहतीं थीं।
पहली समस्या यह थी कि हल्के होने के लिये कोई निश्चित और निर्धारित जगह नहीं थी।मस्तिष्क एक निश्चित समय और दूरी के सापेक्ष तैयारी बनाता था किन्तु स्थान और दूरी बढ़ने और बदलने पर दबाव सम्हालना मुश्किल हो जाता था।
दूसरी, शौच के डिब्बों के प्रति लोगों की उदासीनता डिब्बों में छिपे छिद्रों को नजरअंदाज कर देतीं थीं ,और जब हम मोबिल अॉयल वाले काई-युक्त पुराने डिब्बे लेकर सौ-दो सौ मीटर आगे प्रस्थान कर देते थे तब जाकर यह पता चलता था कि यह जनाब तो लीक कर रहें हैं और डिब्बा महाशय पच्चीस प्रतिशत पानी पूरे मार्ग से चुगलखोरी करने में टपका डालते थे कि आप बखूबी पहचान लें कि फलाने इसी मार्ग से पहाड़ ढकेलने जा रहे हैं। शुरू में तो यह भ्रम होता था कि पानी बाहरी दीवारों से टपक रहा है लेकिन गंतव्य तक पहुँचने के पहले डिब्बे के हल्के होने का पूरा अंदाज़ हो जाता था और जल के शीघ्रपतन की चिंता में मूल कार्य से मन विरत होकर छिद्र की तलाश में लग जाता था. कुल मिलाकर दबाव और तनाव में पानी इतना कम बचता था कि सिर्फ इज्जत बचायी जा सके।
तीसरा- खेतों का तल इतना लेढ़ियाया रहता था कि डब्बे को खड़ा करना एक विकट समस्या थी। हाथ बार-बार डिब्बे को सम और संतुलित करने में लगा रहता था कि कहीं डिब्बा लुढ़क कर पानी को वापस भूमि में दान न कर दे।
चौथी- पर्दानशीन अंग चालीस स्क्वायर फीट के कम्पैक्ट दीवारों में बाहरी हवा से अंजान होते थे और अचानक हुर्रर से आतीं ठंडी पुरूआ हवाएँ पर्दानशीन अंगों को असहज कर देती थी...ठीक वैसे ही जैसे हिरण को पत्ती खाते वक्त बाघ की आहट सा महसूस हो और वह खाना छोड़कर मुंह को उठाकर चारो तरफ ताकने-झांकने लगे तथा मूल लक्ष्य से भ्रमित हो जाये वैसे ही मन लक्ष्य से विचलित हो जाता था।
पांचवीं- हर खेत में जरूर कुछ खरपतवार रहते हैं जो यूँ तो नहीं दीखते किन्तु चुभने के बाद अपने अस्तित्व का परिचय कराते थे,और मन-मस्तिष्क में एक आभासी सर्प का भय छोड़ जाते थे जो आँखों को चकर-बकर ताकने पर मजबूर कर देते थे।
छठा-एक एकड़ के मध्य आठ लोगों का नंगधडंग बैठना . कुछ स्पष्ट न होते हुए भी कमबख्त आंखें गुप्त अंगों की काल्पनिक चित्रकारी करने लगती थीं.
सातवाँ- शौच के समय भी कदमों को आगे बढ़ाते रहना और जब आप तालाब के करीब हों तो डिलेवरी के उपरांत कमर को धनुष बनाकर तालाब तक पहुंचना ऐसा था जैसे शहंशाह औरंगजेब के दरबार में पेश किया जा रहा कोई सजायाफ्ता कैदी।
आठवां- शाम को बाज़ार जाते वक्त मार्ग पर वितरित गंदगी के कारण हर तीसरे द्वारा गरियाया जाना और अपने द्वारा ऐसे ही कृत्य पर पछताया जाना कि मै भी किसी के मार्ग का बाधक बना हूंगा और उक्त द्वारा छोड़े जा रहे अपशब्दों के बाण के निशाने पर आ रहा होउंगा।
दसवां-हाथ में खाली डिब्बे के साथ वापस होते समय राहगीर ऐसे कटकर निकलते थे मानों हाथ में डिब्बा न हो जैसे कोई तांत्रिक किसी कंकाल की खोपड़ी लेकर आ रहा हो।
ग्यारहवां- खुदा न खास्ता अगर सुबह आप पूर्ण भुगतान में चूक गये तो अगोरिये दोपहरिया का सन्नाटा कि खेत खाली हो फिर आप खाली हों नहीं तो जाइये पैर के बीच मुंह धंसा कर खेत में बैठकर लोगों के कदमों की आहट गिनिये और शर्मिंदा होते जाइये।
बारहवां-बरसात के दिनों में दलदली भूमि पर जब एक क्षण भी बिना धंसे ठहरना कठिन हो वहां बेस बना कर प्रक्षेपास्त्र को सेट करना, किसी चुनौती से कम नहीं था..... दूसरी समस्या थी गांव में पथरीली जमीन खोजना..... जो न चाहते हुए भी आपको खड़ंजे पर बिठा देती थी और दिन भर राहगीरों की गाली सुनवाती थी।
बरसात के दिनों में खेतों की मिट्टियों का चप्पल प्रेम उमड़ पड़ता था और हर कदम में संघर्ष के साथ मिट्टी से चप्पल खीचना मनो विदाई होती बिटिया का उसकी मां से जबरदस्ती छुड़ाने की माफिक था और चप्पल की रिहाई के बाद चप्पल का वजन अपने वजन का पांच गुना होना पांव भारी होने के समान था उसके बाद नल चलाकर पोरसा भर पानी से चप्पल साफ करना एक अलग संकट।
वास्तव में शौचालय निर्माण/ प्रयोग एवं खुले में शौच से मुक्ति से अधिक महत्वपूर्ण आज मेरी वह विजय है जिससे लिये मैं पिछले बीस वर्ष से घुट रहा था। सोचता था कि, मैं सही था या ग्रामीण जनता! किन्तु जबसे हमारे माननीय पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन जी से लेकर श्री नरेन्द्र मोदी जी एवं विद्या बालन और प्रियंका भारती समेत अनेक लोगो ने शौचालय प्रयोग की वकालत की तभी से मेरा सीना 56 इंच का हो गया। अब लगता है कि मै ही सही था ....लुका कर शौच करना ही सही था,चिटकनी चढ़ा कर बैठना सही था।बिना स्थान परिवर्तन के एक स्थान पर स्थायी भुगतान सही था। लुंगी पकड़ कर जाना गलत था। लोटा लेकर भागना गलत था।
जय हो स्वच्छ भारत अभियान!जय हो मोदी जी!! जय हो विद्या बालन जी ,जय हो प्रियंका जी!! आज लग रहा है कि जो केस मैं निचली अदालत में हार गया था वही आप लोंगों के कारण उच्च न्यायालय से जीत गया.... सत्य जीत गया,कुतर्क हार गया. मैं डिब्बा भ्रमण से लगभग आजाद हो गया। सोशल मीडिया पर पर शौच करते वक्त वायरल होने से बच गया....
आप सभी को इस पुनीत कार्य हेतु बधाई देता हूँ।
मैं पूर्ण धनुषाकार आकृति के साथ आप सब को नमन करता हूँ॥
रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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