भारतीय राष्ट्रीय एकता का विखंडन और अंग्रेज़ – डॉ. योगेन्द्र यादव
अंग्रेज जहाँ-जहाँ गये, जिन देशों पर जबरदस्ती कब्ज़ा किया, उन देशों का सिर्फ आर्थिक दोहन ही नहीं किया, लोगों को सामजिक और आर्थिक गुलाम ही नहीं बनाया, केवल अमानुषिक अत्याचार ही नहीं किये. वहां के सामाजिक ताने-बाने को ही नष्ट कर दिया, जातीय विद्वेष की ऐसी आग सुलगा दी, जो आज अपने प्रचंड रूप में धधक रही है. अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति ने ही हिन्दू और मुसलमान की मौजूदा अवधारणा को विकसित करने का वैचारिक और राजनीतिक आधार तैयार किया. उन्होंने जनगणना के जरिये पूरे देश के दो फाड़ कर दिए. अपनी इस अवधारणा को हमारे समाज पर थोप दिया. इनके आने से पहले हमारे यहाँ मुसलमान और हिन्दू के तौर पर लोग नहीं जाने जाते थे. बल्कि उनके पेशे के आधार पर जानते थे. हिन्दू –मुसलमान एक दूसरे के तर-त्योहारों में शामिल होते थे. एक-दूसरे से मिलजुल कर रहते थे. किन्तु उनकी सुलगाई हुई आंच से कोई नहीं बच पा रहा है. सभी उसकी तपन से जल रहे हैं. ऐसे लोग भी, जो इस सत्य को जानते हैं. अंग्रेजों की शिक्षण पद्धति ने हमारी वैचारिकता को भी कलुषित कर दिया है. जिसके प्रभाव में हमारी राजनीति आ गयी, और आज की राजनीति जिस तरह सोच रही है, उससे उस धधकती जवाला में घी पड रहा है, ऐसा जान पड़ता है. हिन्दू और मुसलामानों के कुछ नेता एक दूसरे के समाज के खिलाफ आग उगल रहे हैं.
हिन्दू-मुसलमान, सिख, ईसाई ही नहीं, हिन्दुओं की सभी जातियों को भी एक दूसरे के आमने-सामने खड़ा कर दिया. हर जाति में दूसरी जाति के प्रति विद्वेष की भावना पनप रही है. हर जाति और वर्ग वालों को लग रहा है कि दूसरी जाति या वर्ग के लोग हमारे हिस्से में सेंधमारी कर रहे हैं. अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए ऐसे संगठन बन रहे हैं, जिनमे किसी प्रकार का वैचारिक मेल ही नहीं है. राजनीतिक पार्टियाँ किस प्रकार इसे बढ़ावा दे रही हैं, यह सभी जानते हैं. पूरे देश में हर दिन हो रहे आंदोलनों को कैसे विकृत किया जा रहा है, कैसे उनका दमन किया जा रहा है, यह भी सभी जानते हैं.
पूरी दुनिया के शिक्षाशास्त्री मानते हैं कि अपनी मातृभाषा में ही पढाई करके बेहतर ज्ञान हासिल किया जा सकता है. सर्जनात्मकता को आयाम आपकी अपनी मातृभाषा ही दे सकती है. लेकिन हमारे यहाँ इसी को तिलांजलि दी जा रही है. अंग्रेजों ने अपनी भाषा के प्रति हमारे मन में जो बीज बोये थे, वह आज लहलहा रही है. अंग्रेजी बोलने और अंग्रेजी में लिखने वालों के प्रति हमारे नज़रों में सम्मान का भाव है. खडी बोली हिंदी बोलने वालों का भी थोडा सम्मान जरूर है, पर जो लोग अपनी स्थानीय भाषा में बोलते या लेखन करते हैं, उनके प्रति हमारी सोच और दृष्टि, दोनों घिनौनी हो जाती है. उन्हें हम ऐसा समझने लगते हैं, जैसे वे समाज के वे भाग हैं, जिनसे सड़ांध आ रही है,हमारा मुह बिचकने लगता है. हमारे होठों की भौगोलिक स्थिति में परिवर्तन होने लगता है. हमारे चेहरे का रंग उड़ जाता है. इस प्रकार की प्रक्रिया आज नहीं शुरू हुई, इसके भी बीज अंग्रेजों ने ही अपनी मैकाले शिक्षा पद्धति से बोये थे. आज भाषाई विद्वेष की भावना के कारण समाज जिस प्रकार बटा दिखाई दे रहा है, वह भी अंग्रेजों की ही देन है. किन्तु जब कुछ लोगों को इसकी समझ बनी, तो उन्होंने भाषाई आन्दोलन के नाम पर अपने ही देश की किसी आंचलिक भाषा बोलने वालों को अपना निशाना बनाने लगे. महाराष्ट्र और तमिलनाडु में स्थानीय भाषा के नाम पर क्या हुआ, यह किसी से छिपा नहीं है. जिस देश में सोलह सौ से अधिक स्थनीय भाषाएँ हो, वे आपस में इस प्रकार की विद्वेष की भावना रखेंगे, इस तरह से लड़ मरेंगे, तो इस देश की प्रगति और शांति बाधित तो होगी ही. दरअसल इसके भी बीज उसी मैकाले की शिक्षा पद्धति में हैं. जो आज अपने घिनौने रूप में हम सबके सामने है. इससे भारतीय लेखन के सामने भी एक बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया. समाज में बढ़ते कामर्शियलाइजेशन ने इसे उस स्थिति में पंहुचा दिया. जिसका असर भारतीय लेखन पर भी दिख रहा है. अपनी-अपनी भाषा में लिखने की प्रवृत्ति ही बाधित हो गयी है. इससे हमारे लेखन की नैसर्गिकता कम हुई है. नेट के युग में हमारे अधिकाँश विचार आयातित हैं. हम एक क्लिक से उन्ही विचारों को जनता के सामने परोस रहे हैं, जो अग्रेजों या अंग्रेजी मानसिकता के लोगों का है. मौलिकता में निरंतर कमी आ रही है. अब लेखों का, विचारों का स्वरुप बदल रहा है, उसमे उपयोग की गयी मिट्टी एक ही है. जबकि लेखन के मौलिक स्वरुप पर ज्यादा जोर देने की जरूरत है. तभी पाठकों के पूर्व निर्धारित मानस में कुछ बदलाव संभव होगा. साहित्य लेख हमारे हृदय के भाव प्रदेश से निकलना चाहिए, तभी लेखक को सुकून ज्यादा मिलेगा, और उसमे पाठकों के रूपांतरण करने की शक्ति भी होगी.
(यह मौलिक मेरी प्रकाशनधीन पुस्तक का अंश है, जनता की आवाज एवं लेखक की अनुमति के बगैर इसका उपयोग अवैधानिक है। )
- प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गांधीवादी-समाजवादी चिंतक व पत्रकार