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उत्तर प्रदेश

सपा की नैया कैसे पार लगेगी!

सपा की नैया कैसे पार लगेगी!
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मुलायम सिंह यादव का ताजा एलान, जाहिर है, अखिलेश यादव के लिए अब तक का शायद सबसे बड़ा राजनीतिक झटका है। पिछले हफ्ते लखनऊ में सपा की एक अहम बैठक के बाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह ने कहा कि अगले विधानसभा चुनाव में अगर समाजवादी पार्टी को बहुमत मिलेगा, तो मुख्यमंत्री कौन होगा इसका फैसला पार्टी के विधायक मिल कर करेंगे। मतलब साफ है कि अखिलेश यादव को पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश नहीं करेगी। इस फैसले से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सपा के भीतर चल रहा टकराव कितना गहरा गया है। गौरतलब है कि मुलायम सिंह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ही नहीं, अखिलेश यादव के पिता भी हैं। हमारे देश की राजनीतिमें परिवारवाद का जिस कदर बोलबाला हो गया है उसमें यही 'स्वाभाविक' लगता कि मुलायम सिंह अपने बेटे को दोबारा मुख्यमंत्री बनवाने की चाहत ही नहीं रखते, बल्कि इसके उम्मीदवार के तौर पर पेश भी करते। इसमें उनके सामने कोई अड़चन भी नहीं थी। पार्टी उन्होंने खड़ी की है और उस पर उनका एकछत्र नियंत्रण लगातार बना रहा है। तो फिर अखिलेश को चुनावी चेहरा न बनाए जाने के पीछे क्या वजह हो सकती है? क्या मुलायम सिंह परिवार-मोह से उबर गए हैं और उनमें कोई नैतिक बोध हिलोर लेने लगा है? अगर ऐसा होता तो वे पार्टी को परिवार की जागीर न बनाए रखते। सच तो यह है कि महीनों से चल रहा पार्टी का आंतरिक झगड़ा मुख्य रूप से एक परिवार का भीतरी झगड़ा नजर आता है, और मजे की बात है कि खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष पार्टी को इस हालत से उबारने के बजाय इसमें एक पक्ष बने नजर आते हैं।

मुलायम सिंह ने यह भी कहा है कि 2012 का चुनाव उनके नाम पर लड़ा गया था, पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बना दिए गए। लेकिन यह तो मुलायम सिंह के चाहने से ही हुआ होगा। तो क्या अखिलेश को उत्तर प्रदेश की कमान सौंपने का उन्हें मलाल है? जो हो, यह छिपा नहीं रहा कि वे अखिलेश के कई फैसलों से खफा थे और इसकी सजा देना चाहते हैं। मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी से संबंधित मुलायम सिंह का बयान ऐसे वक्त आया है जब अखिलेश कुछ ही समय पहले कह चुके थे कि वे चुनाव प्रचार पर निकलने की तैयारी कर रहे हैं और किसी का इंतजार नहीं करेंगे। अब वे चुनाव प्रचार पर किस रूप में और कब निकलेंगे? मुलायम सिंह के फैसले से अखिलेश को होने वाला सियासी नुकसान तो जाहिर है, पर क्या पार्टी को फायदा होगा? 2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के उम्मीदवारों के लिए सबसे व्यापक अभियान अखिलेश ने ही चलाया था और उनमें लोगों ने सपा की पुरानी छवि से अलग एक नए और प्रगतिशील नेतृत्व की संभावना देखी थी। लेकिन यह कई बार जाहिर हुआ कि उनके हाथ बंधे हुए हैं। जिन लोगों को उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण मंत्री-पद से हटाया, उन्हें मंत्रिपरिषद में फिर लेना पड़ा। एक मुख्यमंत्री के लिए इससे बड़ी तौहीन और क्या हो सकती है? सपा में मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल के विलय का विरोध कर अखिलेश ने प्रशंसा बटोरी थी, पर आखिरकार उनकी चली नहीं। अब जबकि विधानसभा चुनाव नजदीक हैं, सपा आंतरिक संकट में फंसी नजर आती है। ऐसे में उसकी नैया कैसे पार लगेगी!
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