Janta Ki Awaz
उत्तर प्रदेश

अखिलेश ने अपने पौरुष और अपनी ईमानदारी से जनता और पार्टी कार्यकर्ता के सामने नए 'नेता' साबित कर दिया

अखिलेश ने अपने पौरुष और अपनी ईमानदारी से जनता और पार्टी कार्यकर्ता के सामने नए नेता साबित कर दिया
X

चुनाव का नतीजा जो भी आए प्रदेश की जनता यह मान चुकी है कि समाजवादी पार्टी के निर्णायक मुख्तार अखिलेश यादव ही हैं। यही कारण है कि देर से ही सही अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे नेताजी मुलायम सिंह यादव और उनके छोटे भाई व प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव को भी समझ आने लगा है कि अखिलेश के बिना उनकी मीटिंग हो या रैली वह फीकी है।

खुद से आश्वस्त मुख्यमंत्री अखिलेश ने यह पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि कोई साथ चले या न चले, वह अकेले ही रथ लेकर निकल जाएंगे। उसी संकल्प के साथ तीन नवंबर को वह रथ लेकर निकल गए तो सपा परिवार के सभी वरिष्ठ लोगों को उनके रथ के पीछे चलना पड़ा। संकेत स्पष्ट है कि पीढ़ी का बदलाव अब पूरी तरह अपने स्वरूप में आ चुका है। थोड़ा-बहुत कुछ बचा हुआ है तो वह भी चुनाव के बाद ठोस रूप में दिखेगा। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में सपा के एकमात्र चेहरे अखिलेश हों और शिवपाल दिल्ली की राजनीति में मुलायम के सहायक।

पिछले एक महीने में सपा के अंदर जिस स्तर पर और जितनी ज्यादा उथल-पुथल रही उसके बाद स्थिति सामान्य होने में काफी लंबा वक्त लगेगा यह स्वाभाविक है। लेकिन एक मायने में सपा ने चुनाव से परे एक बड़ी गुत्थी संभवत: हमेशा के लिए सुलझा ली है। सपा में नेताजी तो एक ही हैं लेकिन गुत्थी थी - नेता कौन? दरअसल यह सवाल भी खुद सपा का ही बनाया हुआ था।

अखिलेश के शासनकाल के साढ़े तीन-चार साल तक जिस तरह प्रशासन में हस्तक्षेप हुआ उसके कारण ही यह स्थिति पनपी थी। लेकिन इस उहापोह के बाद जो कुछ बाहर आया है वह प्रदेश की राजनीति के लिए एक नई आस जरूर लाया है।

उत्तराधिकार परिवार में बेटे के पास ही आता है यह सर्वमान्य है। सपा के रजत जयंती समारोह में चाचा शिवपाल यादव के मन की टीस भले ही दिखी हो लेकिन उन्होंने भी सच्चाई को मान ही लिया। पर अखिलेश के मामले में जो अलग बात रही वह यह है कि उन्होंने उत्तराधिकार अर्जित कर लिया है। अपने पौरुष और अपनी ईमानदारी से उन्होंने खुद को जनता और पार्टी कार्यकर्ता के सामने नए जमाने का 'नेता' साबित कर दिया।

पीढ़ी का ऐसा बदलाव हुआ जिसमें नेतृत्व का केवल पिता से पुत्र के पास स्थानांतरण नहीं हुआ बल्कि उत्कृष्टता साबित की गई। पीढ़ी का यह बदलाव योग्यता के आधार पर हुआ है। मंत्रिमंडल से कुछ लोगों को हटाने के बाद अपने फैसले पर अडिग रहना और फिर पार्टी से निकाले जाने के बाद भी अपनी पसंद के मंत्री पवन पांडे के साथ खड़े रहने जैसे फैसले ने कार्यकर्ताओं तक को यह संदेश दे दिया कि उनका निर्णय आखिरी होगा। अखिलेश अब चल पड़े हैं। रथयात्र पर भी और न्याय यात्र पर भी। वह पूरे प्रदेश की जनता से पूछेंगे कि कौन सी राजनीति अच्छी है, माफिया और अपराधियों के साथ वाली या जाति, धर्म और विकास वाली? वह कहेंगे, 'हमने विकास किया, डिजिटल यूपी बनाया और हां, अगर अपराधियों को बाहर का रास्ता दिखाया तो क्या गलत किया? मुख्तार अंसारी के साथ हमने हाथ नहीं मिलाया तो क्या गलत किया?' अखिलेश का यही बयान उनकी लकीर को मुलायम और शिवपाल की लकीर से लंबा करता है। दरअसल अखिलेश के साथ न सिर्फ नेतृत्व का बदलाव हुआ है बल्कि सपा की दिशा भी बदली है। उत्तर प्रदेश की अहम पार्टी में हुए इस बदलाव का असर लंबा दिखेगा। प्रदेश से लेकर केंद्र की राजनीति तक। यह माना जाने लगा है कि चुनाव में अब टिकट बंटवारे में भी आखिरी फैसला अखिलेश का ही हो। संभवत: पहले बंट चुके कुछ टिकट भी बदले जाएं। जबकि चुनाव बाद संभवत: शिवपाल दिल्ली की राजनीति में सक्रिय नजर आएं। वह राज्यसभा में आकर शायद रामगोपाल यादव की भूमिका में नेताजी की मदद करें।

Next Story
Share it