रूह कांप जाता लेता रूप प्रचंड
BY Anonymous20 Dec 2021 2:16 AM GMT

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Anonymous20 Dec 2021 2:16 AM GMT
प्रकृति से हो रहा है यह।
जिस तरह से खिलवाड़।।
मानव ही हैं इसके दोषी।
मुसीबत को किया खाड़।।
बेतहाशा हो रही अनहोनी।
आए दिन दरक रहे पहाड़।।
भौतिकवादी हो गए हैं लोग।
अस्तित्व खतरे में रहे डाल।।
मानो प्रकृति भी भृकुटी ताने।
हम पर कर रही हैं आंखे लाल।।
दस्तक दे रही है महामारी।
भूख,गरीबी व बेरोजगारी।।
उबर नही पा रहे हैं लोग।
सिलसिला लगभग जारी।।
बे मौसम बारिश और ठंड।
दोषी हैं स्वयं भोग रहे दंड।।
मच जाता है उठल पुथल।
रूह कांप जाता लेता प्रचंड।।
मनुज की तृष्णा के कारण ही।
आज जिंदगियां हो रही तबाह।।
उजाड़ कर बस्तियां नगर बसा।।
कुदरत भी कहर रहा बरपा।।
अभय सिंह
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