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उत्तर प्रदेश

परब्रह्म जिसे अपना रस देना चाहते हैं उसी की आंखों से माया का घूंघट उठा देते हैं

परब्रह्म जिसे अपना रस देना चाहते हैं उसी की आंखों से माया का घूंघट उठा देते हैं
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जब परब्रह्म (परमात्मा) किसी जीवात्मा पर अपनी कृपा करना चाहते हैं, तो वे उसकी दृष्टि को शुद्ध कर देते हैं, जिससे वह माया के भ्रम से मुक्त होकर वास्तविकता को देख सके। माया का घूंघट अज्ञानता, मोह और सांसारिक इच्छाओं का प्रतीक है, जो मनुष्य को सत्य से दूर रखता है। लेकिन जब ईश्वर किसी को अपनी कृपा से नवाज़ते हैं, तो उसे सत्य और आत्मज्ञान की अनुभूति होती है।

बस्ती - जब तक जीवात्मा और परमात्मा के बीच में यह जो सूक्ष्म आवरण अर्थात माया जब तक इसे हरी ना चुरावे तब तक जीव उसे दिव्य रस का अधिकारी नहीं बनता। भगवान श्री कृष्ण ने असंख्य गोपियों के साथ महारास की लीला सम्पन्न किये। परब्रह्म जिसे अपना रस देना चाहते हैं उसी की आंखों से माया का घूंघट उठा देते हैं। जहां उसे ब्रह्म का अपरोक्ष साक्षात्कार हुआ उसे दिन ब्रश का एक बार रसास्वादन किया कि वह महारास का परम पात्र बन गया। गोपियों के चीरहरण के प्रसंग पर पूज्य महाराज श्री ने कहा गोपी रूपी जीव की बुद्धि रूपी गोपी में अज्ञान रूपी जो आवरण दुकूल पड़ा है, उसे अज्ञान के आवरण का हरण करने वाले हैं श्री हरि। चीर हरण लीला अर्थात आवरण भंग लीला। एक बार जिसका आवरण हरण हो जाए तो वह जीव फिर संसार में भले ही रहे पर संसार की माया उसे प्रभावित नहीं कर सकती। माया में रहकर भी माया से जो निर्लिप्त रहे वही महात्मा है। भगवान श्री कृष्ण ने कामदेव का अभिमान दूर करने के लिए महारास का आश्रय लिया। जीवात्मा और परमात्मा के मिलन की रात्रि महारास की रात्रि है। महाराज में जितनी गोपिया आई थी वेद के मंत्र ही गोपी के रूप में आई थी। अक्रूर जी वृंदावन श्री कृष्ण दाऊ को मथुरा ले गए वहां पहुंचकर श्री कृष्ण ने कंस का वध किया। और भगवान अवंतिका पुरी उज्जैन में वेदांत शास्त्रों के अध्ययन के लिए गए।

चीर हरण लीला, जिसे आवरण भंग लीला भी कहा जाता है, भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं में से एक है। इसका गहरा आध्यात्मिक और प्रतीकात्मक अर्थ है। गोपियों के वस्त्र हरण की लीला यह दर्शाती है कि आत्मा जब तक माया (अहंकार, देहाभिमान, सांसारिक आसक्ति) के आवरण में लिपटी रहती है, तब तक वह परमात्मा के सच्चे स्वरूप को नहीं पहचान पाती। जब तक जीव अपने अहंकार और सांसारिक बंधनों को नहीं त्यागता, तब तक वह प्रभु की कृपा को पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर सकता।

कुछ समय व्यतीत होने पर प्रभु श्री कृष्ण

द्वारकाधीश बने और कालांतर में विदर्भ देश के राजा महाराज भीष्मक की पुत्री रुक्मणी से इनका विवाह संपन्न हुआ। भगवान श्री कृष्ण ने 16108 विवाह किये। भगवान श्री कृष्णा जो किए हैं वह मनुष्य नहीं कर सकता श्री कृष्ण की लीला ईश्वरी लीला है मनुष्य को चाहिए श्री राम के किए हुए को श्री कृष्ण के कहे हुए को जीवन में चरितार्थ कर अपना कल्याण प्रशस्त करें। श्री कृष्ण रुक्मणी मंगल सजीव झांकी का लोगों ने दर्शन किया मांगलिक गीत आरती का अलभ्य लाभ श्रोताओं ने प्राप्त किया

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