अब नहीं तोड़ी जाती चूड़ियां-मंगलसूत्र, 7000 गांवों में विधवाओं के साथ भेदभाव खत्म, महाराष्ट्र में सामाजिक बदलाव की लहर

महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में धीरे-धीरे सामाजिक बदलाव की लहर उठ रही है। जहां 7,000 से अधिक गांवों ने घोषणा की है कि उन्होंने विधवाओं को परेशान करने वाले और उनके साथ भेदभाव करने वाले रीति-रिवाजों को खत्म कर दिया है। विधवाओं से जुड़ी बुरी प्रथाओं को खत्म करने के अभियान की अगुआई कर रहे कार्यकर्ता प्रमोद झिंजड़े ने कहा कि महाराष्ट्र की 27,000 ग्राम पंचायतों में से 7,683 गांवों ने ग्राम सभाएं आयोजित की हैं। इस दौरान घोषणा की गई कि उन्होंने विधवाओं के साथ भेदभाव करने वाले रीति-रिवाजों को खत्म कर दिया है।
हेरवाड़ बना देश का पहला गांव
कोल्हापुर जिले के हेरवाड़ गांव के बाद इस अभियान को गति मिली है, जो 2022 में विधवापन से जुड़ी प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाने वाला देश का पहला गांव बन गया है, ताकि महिलाओं के सम्मान के साथ जीने के अधिकार को बनाए रखा जा सके। गांव ने 4 मई, 2022 को एक प्रस्ताव पारित किया था। इसमें विधवाओं के मंगलसूत्र और पैर की अंगूठियों को उतारने, उनका सिंदूर पोंछने और उनकी चूड़ियां तोड़ने पर प्रतिबंध लगाया गया।
गणपति पूजा और ध्वजारोहण में विधवाएं हुईं शामिल
पिछले कुछ सालों में कई ग्रामीण इलाकों ने सार्वजनिक गणपति पूजा, हल्दी-कुमकुम कार्यक्रमों और ध्वजारोहण समारोहों में विधवाओं को शामिल करके हेरवाड़ की राह अपनाई है। देश में विधवाओं के सामने आने वाली चुनौतियों का संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पिछले साल एक एडवाइजरी जारी की थी। मानवाधिकार ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से इन महिलाओं के जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने और उनकी गरिमा की रक्षा करने को कहा था।
चूड़ियां और मंगलसूत्र तोड़ने की प्रथा हुई खत्म
समाचार एजेंसी पीटीआई से बात करते हुए हेरवाड़ के पूर्व सरपंच सुरगोंडा पाटिल ने कहा कि चूड़ियां तोड़ने और मंगलसूत्र और बिछिया उतारने की प्रथा लगभग खत्म हो गई है। उन्होंने कहा, 'पहले हम उन घरों में जाते थे, जहां मौतें होती थीं और जांच करते थे कि क्या इन परंपराओं का पालन किया जाता है। लेकिन अब लोग ज्यादा जागरूक हैं।' इसके साथ ही उन्होंने कहा कि गांव की कुछ विधवाओं ने दोबारा शादी कर ली है और उन्हें सामाजिक और धार्मिक समारोहों में शामिल किया जाता है।
विधवाओं के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार
हेरवाड़ के रहने वाले वैशाली पाटिल, जिन्होंने 12 साल पहले अपने पति को खो दिया था। उन्होंने कहा, 'विधवाओं के साथ सम्मान और गरिमा के साथ व्यवहार किया जा रहा है। लोगों को एहसास हुआ है कि हम इंसान हैं। हालांकि, मानसिकता को बदलना होगा और सदियों पुरानी परंपराओं को रातों-रात खत्म नहीं किया जा सकता है।' उन्होंने कहा कि परिवारों में बुजुर्गों को कुछ रीति-रिवाजों को छोड़ने के लिए राजी करना कठिन है और यह अभी भी प्रगति पर है।
खास कार्यक्रमों में विधवाओं को दिए जाते हैं उपहार
नागपुर जिले के कडोली गांव की पूर्व सरपंच प्रांजल वाघ ने कहा कि उन्होंने हेरवाड़ ग्राम सभा के प्रस्ताव से बहुत पहले हल्दी-कुमकुम कार्यक्रमों के लिए विधवाओं को आमंत्रित करने की प्रथा शुरू की थी। उन्होंने कहा, 'जब मैं 2017-22 तक सरपंच थी, तो विधवाएं बाहर जाकर सामाजिक मेलजोल नहीं करती थीं। मैं सभी महिलाओं को हल्दी-कुमकुम कार्यक्रमों के लिए आमंत्रित करती थी और आपत्तियों के बावजूद विधवाओं को उपहार देती थी।' वाघ ने बताया कि कदोली ग्राम सभा ने विधवाओं से जुड़ी बुरी प्रथाओं पर रोक लगाने का प्रस्ताव भी पारित किया है, लेकिन इसका सख्ती से पालन नहीं किया जाता है। उन्होंने कहा कि वे हर साल हल्दी-कुमकुम के लिए 1,000 महिलाओं को आमंत्रित करती हैं।
किसी व्यक्ति के मरने पर जांचने पहुंचती है टीम
महाराष्ट्र के कोल्हापुर, सांगली और सोलापुर जिलों में काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता ललित बाबर ने कहा कि संगोला में 76 ग्राम पंचायतों ने विधवाओं से संबंधित सदियों पुरानी भेदभावपूर्ण परंपराओं का पालन न करने की शपथ ली है। बाबर ने कहा, 'हमने ब्लॉक विकास अधिकारियों और एकीकृत बाल विकास सेवाओं (ICDS) के कार्यकर्ताओं को शामिल किया है। जब हमें किसी व्यक्ति की मृत्यु के बारे में जानकारी मिलती है, तो हम यह जांचने के लिए घर जाते हैं कि क्या उसकी पत्नी को कोई अनुष्ठान करने के लिए मजबूर किया गया है।'
कोई शोकग्रस्त महिला स्वेच्छा से नहीं बंधती बंधनों में
उन्होंने कहा कि कोई भी शोकग्रस्त महिला स्वेच्छा से ऐसे अनुष्ठानों में भाग नहीं लेती है और अक्सर उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाता है। उन्होंने कहा, 'जब हम लोगों को बताते हैं कि ये प्रथाएं प्रतिबंधित हैं, तो वे ज्यादातर सुनते हैं। लेकिन 10 से 20 प्रतिशत लोग अभी भी इसका पालन नहीं करते हैं।'
जागरुकता पैदा करने की जरूरत
कार्यकर्ता ने कहा कि विधवाओं से संबंधित प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाने के लिए सरकार को एक मसौदा कानून सौंपा गया है, लेकिन केवल एक कानून पर्याप्त नहीं है। उन्होंने कहा, 'हमें जागरूकता पैदा करने के लिए एक अभियान की आवश्यकता है। आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता जागरूकता अभियान में बहुत मददगार हो सकते हैं।'