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PMमोदी की लोकप्रियता 63 प्रतिशत से घटकर 38 प्रतिशत रह गई, निस्संदेह, पूरे भारत में लोगों के दुख और गुस्से में इसकी प्रतिक्रिया दिखती है।

PMमोदी की लोकप्रियता 63 प्रतिशत से घटकर 38 प्रतिशत रह गई, निस्संदेह, पूरे भारत में लोगों के दुख और गुस्से में इसकी प्रतिक्रिया दिखती है।
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मोदी सरकार इसी हफ्ते सत्ता में सात साल पूरे कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में गिरावट को लेकर काफी बवाल और बहस चल रही है। सी वोटर के साप्ताहिक सर्वेक्षण के अनुसार, मोदी की लोकप्रियता 63 प्रतिशत से घटकर 38 प्रतिशत तक आ गई है, जबकि वैश्विक संगठन मॉर्निंग कंसल्ट के अनुसार, मई 2020 के 68 फीसदी से घटकर 33 फीसदी पर आ गई है। निराशा और संकट की भयावहता को देखते हुए ये निष्कर्ष आश्चर्यजनक नहीं हैं। महामारी की दूसरी लहर के प्रबंधन में सरकारों (केंद्र और राज्यों) ने टीकाकरण को एकमात्र रामबाण मान लिया है। और वैक्सीन खरीद के प्रबंधन ने लाखों लोगों को कतार में खड़े होने को विवश कर दिया है। निस्संदेह, पूरे भारत में लोगों के दुख और गुस्से में इसकी प्रतिक्रिया दिखती है।

एक बहुविकल्पीय प्रश्न के माध्यम से जनमत सर्वेक्षण के जरिये भारत के राजनीतिक परिदृश्य के बारे में एक दिलचस्प परिप्रेक्ष्य तैयार करना दुर्लभ है। और सर्वेक्षक यशवंत देशमुख ने अपने सर्वेक्षण के माध्यम से, जिसमें 10,000 लोगों से सवाल पूछे गए, बस यही किया है। सी-वोटर सर्वेक्षणकर्ता ने पूछा, 'आपको क्या लगता है कि भारत के प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार कौन है?' प्रतिक्रियाओं का बारीक विवरण सारी कहानी बता रहा है। नरेंद्र मोदी की वरीयता 64 फीसदी से घटकर 41 फीसदी पर आ गई है। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तरदाताओं की दूसरी पसंद, लगभग 18 प्रतिशत, 'पता

विपक्ष में दूसरे के दुख से खुश होने की जो भावना दिख रही है, वह हैरान करने वाली है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की जीत के बाद विपक्षी दलों के 'एक साथ आने' को लेकर काफी अटकलें लगाई जा रही हैं। खैर, ममता बनर्जी की लोकप्रियता सिर्फ तीन प्रतिशत से अधिक है और सभी उम्मीदवारों की कुल लोकप्रियता मोदी की तुलना में कम है। राहुल गांधी 11.6 प्रतिशत के साथ विपक्षी नेताओं की सूची में सबसे ऊपर हैं और अन्य इकाई अंकों की सदस्यता के मामले में सर्वश्रेष्ठ हैं। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि महागठबंधन बनने पर भी कुछ खास नहीं हो पाएगा-ऐसा कहने वालों का अनुपात आठ से 18 प्रतिशत तक बढ़ गया है। वास्तव में, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के नेताओं के उत्साह को उनकी मनचाही कल्पना के रूप में वर्णित किया जा सकता है।

भाजपा और मोदी को सार्थक चुनौती देने के बारे में हो रही चर्चा अनिवार्य रूप से सत्ता की तलाश से जुड़ी महत्वाकांक्षा ही है। यह पटकथा की तलाश करता कथानक है, या सबूतों की तलाश में धर्मार्थ प्रवचन है। ऐसा कोई व्यक्ति या पार्टी नहीं है, जो वास्तविक चुनौती देने के करीब हो। इस हफ्ते की शुरुआत में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी, जिनके बारे में कई लोगों को लगता है कि वे भविष्य में अध्यक्ष हो सकते हैं, ने दार्शनिक कार्ल पॉपर का एक उद्धरण ट्विटर पर पोस्ट किया-'सच्चा अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है; इसे हासिल करने से इन्कार करना है।' जाहिर तौर पर यह तंज सत्ता प्रतिष्ठान को निशाना बनाकर किया गया था, लेकिन यह कांग्रेस पर भी लागू होता है। सच तो यह है कि कांग्रेस ने भी ज्ञान पाने से इन्कार कर दिया है-2014 में किया गया आत्मनिरीक्षण का वादा जल्द ही पुरातात्विक खुदाई का टैग हासिल कर सकता है।

यह सच है कि कांग्रेस एक अखिल भारतीय संगठन है- इसने 2019 में 11.9 करोड़ वोट हासिल किए, भले ही उसने केवल 52 सीटें जीतीं। लेकिन इसे अपने संगठन की स्थिति को देखते हुए चुनावों और राज्यों में संघर्ष करना पड़ा है। बारिश पर निर्भर खेतों की तरह, पार्टी एक कार्यकर्ता को तभी अंकुरित करती है, जब सत्ता की वर्षा से सिंचित होती है। एक दृश्य नेतृत्व और संगठन के बिना यह पार्टी एक विचार बनकर रह गई है। हालांकि, काफी हद तक दिशाहीन विपक्ष की विफलताएं भाजपा के लिए जश्न का कारण नहीं हो सकती।

यह याद रखना चाहिए कि चुनौती देने वाले नेता या पार्टी का अभाव भी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की हार को रोक नहीं पाया। संघ परिवार के लिए चिंता की बात यह है कि प्रधानमंत्री के साथ-साथ गृहमंत्री अमित शाह की रेटिंग में तेज गिरावट आई है, जिन्हें यकीनन देश की सत्ताधारी पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है। लोकप्रियता की रेटिंग इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि पार्टी को आगे महत्वपूर्ण राजनीतिक चुनौतियों का सामना करना है। वर्ष 2022 में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं, साथ ही पंजाब, गोवा, गुजरात और मणिपुर में भी। उत्तर प्रदेश में विपक्ष पर वर्चस्व बनाए रखना 2024 के चुनाव के लिए महत्वपूर्ण है। महामारी के प्रबंधन का प्रभाव बिहार और हाल ही में बंगाल में दिखा है।

महामारी के आगमन के साथ शुरू होने वाली गिरावट तेज हो रही है और मतदाताओं की सबसे बड़ी चिंता दोहरी चुनौतियों का प्रबंधन है – महामारी और आर्थिक गिरावट, विशेष रूप से रोजगार और छोटे व्यवसायों का पतन। सर्वेक्षण से पता चलता है कि उत्तरदाता अपने जीवन और देश की स्थिति के बारे में निराशावादी होते जा रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के नेता मोहन भागवत ने जिस ऑपरेटिव शब्द का सावधानी से प्रयोग किया है, वह है 'आत्मसंतुष्ट'। पसंद और निर्णयों ने जानबूझकर या गलती से बदलाव को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी राजनीतिक पूंजी को नष्ट कर दिया है।

फिर से लोकप्रियता हासिल करने के लिए बदलाव का दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि टीकाकरण अभियान को कैसे नया रूप दिया जाता है और अर्थव्यवस्था को कैसे पुनर्जीवित किया जाता है। महामारी के प्रबंधन और महत्वपूर्ण नीतिगत मुद्दों पर विभिन्न उच्च न्यायालयों में मामलों की अधिकता सरकार में प्रतिभा की कमी, राज्य की क्षमता, बाबूराज और समिति राज की निरंतरता को दर्शाती है। अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि 'कोई भी समस्या उसी चेतना से हल नहीं हो सकती, जिसने इसे जन्म दिया है।' शासन अब भी सुस्त, संरचना और प्रणालियों में पुरातन और अक्षम है-बहुत कुछ एंबेसडर कारों की तरह, जो दशकों से अधिकारी राज का प्रतीक बना हुआ है। मोदी 2014 में परिवर्तनकारी बदलाव के वादे के साथ आए थे। न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन का आदर्श वाक्य अब भी सुधार की प्रतीक्षा कर रहा है।


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