"दीपावली और स्मोग"

Update: 2017-10-10 04:00 GMT
मिस्टर जॉन, लन्दन में एक दुकान (स्टोर, शॉप) चलाते थे। 5 दिसंबर 1952 को जब वे सुबह उठे, तो अपने चारों ओर एक घने कोहरे को पाए। ऐसा नहीं था कि कुछ दिखाई नहीं दे रहा था, लेकिन साँस लेने में दिक्कत महसूस होने लगी। पूरे शहर में, सड़क पर, गलियों में, यहाँ तक कि लोगों के घरों में भी यह कोहरा घुस गया था। जॉन चूँकि स्वस्थ थे, उनको साँस सम्बंधित कोई एलर्जी भी नहीं थी। इसलिए थोड़ी घुटन तो महसूस करते रहे, लेकिन अपना दैनिक कार्य निपटाते रहे।

कुछ दिन बाद जॉन को समाचार पत्रों से पता चला कि वो कोहरा नहीं स्मोग (smog) था।

वैज्ञानिकों ने रिसर्च करके बताया कि ये स्मोग, धूवें (स्मोक, smoke) और कोहरे (फोग, fog) का मिश्रण था। इसमें वायु का वेग लगभग जीरो था, जिससे कोहरा उड़ भी नहीं रहा था। सारे प्रदूषणकारी तत्त्व जैसे फैक्ट्रियों, घरों की चिमनियों और गाड़ियों इत्यादि से निकलने वाले जहरीले धूवें जो कि जानलेवा केमिकल से मिश्रित होते हैं, वे सारे ही उसी कोहरे में घुल कर फंस कर जमीन से लेकर कुछ मीटर की ऊंचाई तक जैसे चिपक से गए थे। ऐसा लग रहा था जैसे कुछ मीटर ऊँचा एक घना बादल पूरे शहर को अपने आगोश में लेकर बैठ गया हो। 

फिर 9 दिसंबर को जैसे ही वायु का दबाव परिवर्तित हुआ, थोड़ी हवा चली, ये कोहरा जैसे जादू के जोर से ही उड़ कर गायब हो गया। जॉन को समाचार पत्रों में यह भी पढने को मिला कि 5 से 9 दिसंबर के बीच इस स्मोग से लगभग 12,000 लोग मर गए, और 2,00,000 के करीब लोग अस्पतालों में भरती थे। 
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मैं कल सुबह 5 बजे घर से दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए निकला तो पाया कि थोड़ा कोहरा सा है। लेकिन ठीक से कहूँ तो अभी ये कोहरा भी नहीं था। लेकिन मुझे साँस लेने में दिक्कत होने लगी। (बताता चलूँ कि उपरवाले की कृपा से मुझे भी कोई बीमारी नहीं है।) हलकी सी घुटन थोड़ी देर तक रहने के बाद बॉडी एडजस्ट हो गई, और मेरी घुटन दूर हो गई। अच्छा, इसमें भी एक शंका है जिसे समझना बहुत जरुरी है। जिस कारण से ये घुटन उत्पन्न हुई थी, वो 'कारण' दूर नहीं हुआ था। वो कोहरा बरकरार था, बस मेरा चेतन मष्तिष्क अब उस घुटन को महसूस नहीं कर रहा था ! 

एक्चुली, हमारे शरीर का तंत्रिका तंत्र ऐसा बना हुआ है कि जरा सी हलचल होते ही हम उसे महसूस करते हैं, हमारा चेतन और अचेतन मष्तिष्क दोनों सक्रिय हो जाते हैं। फिर थोड़ी देर बाद जब चेतन मष्तिस्क को लगता है कि यह खतरा तो कोई बहुत बड़ा खतरा नहीं है, तो वह इस मुद्दे को अचेतन मष्तिष्क को सौंप कर अपनी रोज मर्रा की जरूरतों पर खुद को केन्द्रित कर लेता है। उधर अचेतन मष्तिष्क शरीर की तंत्रिका प्रणाली को इस खतरे से निपटने हेतु तैयार करने लगता है। अब ये आपके ऊपर है कि शारीरिक और मानसिक व्यायामों से आपने अपने शरीर और तंत्रिका तंत्र को कितना शक्तिशाली बनाया हुआ है।
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थोड़ी देर में मुझे ये खबर भी मिल गई कि सुप्रीम कोर्ट ने दीपावली के लिए पटाखों की बिक्री को बैन कर दिया है, प्रतिबंधित कर दिया है। सच कहूँ तो ये खबर पढ़ कर मेरे मन मष्तिष्क को ख़ुशी हुई कि चलो कम से कम पटाखों के जहरीले धुवें से तो लोगों को मुक्ति मिल जाएगी। क्योंकि दिल्ली और आसपास के इलाकों में यह स्मोग लगभग दीपावली के कुछ समय पूर्व ही शुरू होता है, और पूरी सर्दी तक, जनवरी के अंत तक रहता है।

लगा कि चलो कम से कम छोटे-छोटे बच्चे और कमजोर हो चले वृद्धों को थोड़ी राहत मिलेगी। दमा के मरीजों को राहत मिलेगी। मेरा अवचेतन मन ख़ुशी मनाता रहा, लेकिन फिर चेतन मन इस तरफ सोचने लगा कि माननीय सुप्रीम कोर्ट की नजर सिर्फ हम हिन्दुओं के धर्म, हमारे त्योहारों इत्यादि पर ही 'क्यों'रहती है? पटाखे तो इस्टर, न्यू इयर इत्यादि पर भी खूब फोड़े जाते हैं, और अब तो सेकुलर लोग भी, हर धर्म के लोग इस समय पटाखे न्यू ईयर पर फोड़ने लगे हैं। जबकि कोहरा उस समय और भी ज्यादा रहता है। फिर क्या कारण है कि सिर्फ दीपावली को ही लक्षित किया गया? 

हे माननीय, अगर बैन लगाना ही है, तो पटाखों की मैन्युफैक्चरिंग, उत्पादन पर ही लगा दीजिये। न रहे बांस न बजे बांसुरी। फैक्ट्रियों और गाड़ियों का कुछ कीजिए। इनकी तुलना में पटाखों का धुंआ 1% भी नहीं होता है।

हमारा त्यौहार तो दीपों का है, रोशनियों का है, मिठाइयों और खुशियों का है। ये पटाखों का कल्चर (या मुझे 'रिवाज' शब्द ज्यादा सही लगता है !) तो अभी सौ साल भी नहीं हुए जब दीपावली में घुस गया है, या जानबूझकर व्यवसाय बढ़ाने के लिए 'घुसेड़ा' गया है। इसलिए अगर सोच आपकी सही है तो सही ढंग से, सम्पूर्ण ढंग से इसका क्रियान्वन कीजिये। एक देश एक संविधान की तरफ बढिए, हम भी साथ देंगे। 
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अन्यथा अगर यह अघोषित छद्म युद्ध ही है हमारे खिलाफ, तो फिर युद्ध में प्रदुषण तो होगा ही, और ये पहले से भी विकराल होता जाएगा। उसमें ये आपके बायस्ड बयान आपकी ही 'बची खुची इज्जत' को और मटियामेट करते चले जाएंगे।

इं. प्रदीप शुक्ला
गोरखपुर

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