जाने !महात्मा गाँधी के अनुसार बुद्धि और श्रद्धा में क्या है अंतर – डॉ. योगेन्द्र यादव

Update: 2017-02-11 06:59 GMT

बुद्धि और श्रद्धा के अनेक अर्थ पुरातन शास्त्रों और शब्द कोशों में प्राप्त होते है. महात्मा गाँधी ने उस सभी शब्द कोशों और पुरातन शास्त्रों में इनके अर्थों को पढ़ागुनापर जब उस पर प्रयोग किये तो अलग तरह के अर्थ निकल कर आये. एक पत्र लेखक ने जब पूछ लिया तो उन्होंने इन दोनों शब्दों का जो अर्थ कियावह समझने और अध्ययन करने योग्य है. महात्मा गाँधी कहते हैं कि एक पत्र लेखक ने मुझे प्रबुद्ध भारत का सितम्बर का अंक भेजा है. इस अंक में संपादक ने मेरे उस उत्तर का प्रतिवाद प्रकाशित किया हैजो मैंने हाल ही में प्रकाशित उनकी लेखमाला चरखा और खादी विचार के सम्बन्ध में लिखा था. अगर इस प्रतिवाद के संपादक संतुष्ट हैं और पाठकों को भी संतोष होता है तो ठीक हैमैं और तर्क नहीं देना चाहता तथा अंतिम निर्णय समय और अनुभव पर छोड़ता हूँ. लेकिन संपादक महोदय के उत्तर में एक बात तो विचारणीय है. सम्पादक ने मेरी उस टिप्पड़ी की उपादेयता को चुनौती दी हैजिसमे मैंने कहा था कि तर्कों के आधार पर किये जा रहे विचार-विमर्श में सम्मानित दिवंगत पुरुषों के वचनों का हवाला देकर अनुमान निकालनाश्र्द्धास्पदों का अपमान माना जाना चाहिए. प्रबुद्ध भारत स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित संस्था का मुख-पत्र है. इस कारण संपादक महोदय इस कथन से विशेषतया रुष्ट हुए हैं. लेकिन मैं तो अपनी बात को ठीक ही कहूँगा. मेरे विचार से तर्काश्रित वाद-विवाद में पंथ विशेष के सदस्यों और मुख-पत्रों को तो अपने पंथ के संस्थापक के वचनों को घसीटने से बचना ही चाहिए. क्योंकि  उन पर श्रद्धा न रखने वाला व्यक्ति कदाचित उक्त संस्थापक की वाणी को कोई महत्त्व ही न दे. यह ऐसा समझियेजैसे श्री कृष्ण के वचनों का उस व्यक्ति के लिए जो कृष्ण भक्त नहीं हैकोई महत्त्व नहीं है. यह बात अनुभव सिद्ध है कि उन सभी बातों में जहाँ भावनाओं की अपेक्षा तर्क ही प्रधान माना जा रहा होमहापुरुषों के लेखों से फिर चाहे वे कितने ही महान क्यों न होंउदहारण प्रस्तुत करना,अप्रासंगिक होता है तथा ऐसा करने से उन बातों के और अधिक उलझ जाने की संभावनाएं रहती हैं. मैं संपादक महोदय और पाठकों के सामने यह बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैंने किसी भी महापुरुष के किसी कथन विशेष के उल्लेख की आलोचना नहीं की हैमैंने सुझाव अवश्य दिया है कि उक्त वचनों का कोई निहितार्थ निकालने की अपेक्षा स्वयं पाठको को समझने और अपने निर्णय लेने की स्वतंत्र दी जानी चाहिए. उदाहरण के लिए क्या तथाकथित ईसाइयों ने ईसा मसीह के सच्चे सन्देश को नहीं तोडा-मरोड़ा हैक्या संदेहवादियों ने ईसा मसीह के एक ही तरह के वाक्यों के बिलकुल विरोधी अर्थ नहीं निकले हैंइसी प्रकार भगवदगीता के उन्ही श्लोकों के विभिन्न वैष्णव सम्प्रदायों ने क्या अलग-अलग और कभी-कभी तो विरोधी अर्थ तक नहीं निकाले हैंकिसी का वध करने के लिए भी क्या गीता की गवाही पेश नहीं की जातीमुझे तो वह बिलकुल स्पष्ट लगता है कि तर्क की भी यह मांग है कि हमें किसी भी महापुरुष केफिर चाहे जितने बड़े वे होंवचनों को प्रमाण रूप में प्रस्तुत करने का यत्न नहीं करना चाहिए. आश्चर्य की बात है कि जिस पत्र लेखक ने मुझे प्रबुद्ध भारत की प्रति भेजी थीउसी ने भगिनी निवेदिता की दो परस्पर विरोधी उक्तियाँ भी भेजी है. उक्तियाँ निम्न हैं:

अन्य लोगों की तरह उन्होंने (विवेकानंद) बिना सोचे समझे यह स्वीकार कर लिया था कि मशीनों का प्रयोग खेती के लिए वरदान सिद्ध होगा. परन्तु अब उन्होंने देख लिया है कि अमेरिका के किसान को अपने कई मील लम्बे चौड़े खेत में मशीनों का उपयोग से भले अधिक लाभ होकिन्तु वही मशीने भारत में छोटी-छोटी जोत के मालिक किसानों का थोडा-बहुत हित करने के बजाय नुक्सान ही अधिक करेंगी. दोनों दिशाओं की समस्याएं भिन्न हैं. इसका उन्हें पूरी तरह विश्वास हो गया था. हर मामले मेंजिनमे उत्पादन के बटवारे की समस्या शामिल हैवे ऐसे सभी तर्कों को सशंक होकर सुनते थेजिनमे छोटे-मोटे हितों की उपेक्षा की बात कही जाती थी. इस प्रकार वे अनजाने ही अनेक मामलों की तरहइस मामले में भी पुरातन भारतीय सभ्यता की भावनाओं को बनाये रखने के पक्ष में दिखाई देते थे.

(मास्टर ऐज साँ हिमपृष्ठ - २३१)

उनके (विवेकानंद) अमेरिकी शिष्य उनके उस वर्णन से सुपरिचित हो गये थेजिसमे वे एक पंजाबी महिला का उल्लेख करते थेजो चरखा कातते हुए उसके स्वर में शिवोहमशिवोहम की ध्वनि सुनती थी. इसका उल्लेख करते समयउनके मुख पर स्वप्निल सुख झलकने लगता था.

(मास्टर ऐज साँ हिमपृष्ठ - ९५)

ये अंश स्वामी जी के विचारों को ठीक-ठीक ढंग से पेश करते हैं या नहींमैं नहीं कह सकता.

 

डॉ. योगेन्द्र यादव,

विश्लेषकभाषाविद, वरिष्ठ गांधीवादी-समाजवादी चिंतक व पत्रकार

Similar News