'टीपू' अब सुलतान हो गया है। यह बात मुलायम सिंह यादव कब मानेगे

Update: 2016-10-25 01:06 GMT
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी छवि की बदौलत साढ़े चार साल में ही अपने पिता व राजनीतिक गुरु मुलायम सिंह से लंबी लाइन खींच दी है। यही बात सपा कुनबे के कुछ नेताओं व मुलायम सिंह को सख्त नागवार गुजरी है।

लेकिन जो मुलायम सिंह अपने अप्रत्याशित और कठोर फैसले के लिए मशहूर रहे हैं, वह इस समय कोई फैसला लेने से हिचक व ठिठक रहे हैं। उन्हें मालूम है कि उनका एक भी गलत फैसला उनके कुनबे को ले डूबेगा। इसीलिए वह शिवपाल और अखिलेश के बीच सुलह कराने की कोशिश भी कर रहे हैं। अखिलेश यादव अपनी चुनावी रथयात्रा पर निकलने वाले हैं। उनके साथ उनकी साफ सुथरी छवि, एक अनुभवी प्रशासक और किये गये विकास कार्यों की थाती है।

मुलायम सिंह ने अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित किया था। अखिलेश ने अपनी कार्य प्रणाली से नेताजी के फैसले को उचित साबित करने का पूरा प्रयास भी किया है। लेकिन पार्टी और यादव परिवार के भीतर ही अखिलेश का यह प्रदर्शन कुछ लोगों को खल रहा है। सपा में मची रार की मुख्य वजह भी यही मानी जा रही है। कमजोर मुख्यमंत्री की तोहमत से छुटकारा पाने के लिए अखिलेश ने समाजवादी पार्टी व सरकार के तौर तरीके में आमूलचूल बदलाव करना शुरु कर दिया। मुलायम सिंह जैसे दिग्गज समाजवादी नेता को भी न जाने किस मजबूरी में अखिलेश यादव का यह तरीका नागवार गुजरा है।


न्यूक्लियर डील रही हो या अयोध्या में गोली चलाने का आदेश नेताजी के लिए एक सामान्य बात रही। लेकिन अपने साफ छवि वाले मुख्यमंत्री अखिलेश के खिलाफ कुछ करने में उनकी हिम्मत जवाब देने लगी है। दरअसल, उनका बेटा उनकी राह पर चलने की जगह खुद का रास्ता बनाने लगा है, जिसे खुली चुनौती माना गया। लेकिन पहलवान रहे मुलायम सिंह यह जान समझ रहे हैं कि गलत समय पर धोबियापाट लगाना उल्टा उन्हें पड़ सकता है।

मुलायम सिंह की लंबी राजनीतिक यात्रा में डीपी यादव, मुख्तार अंसारी, राजा भैया व किरनपाल जैसे लोगों का काफिला सपा के इर्दगिर्द ही चलता रहा। लेकिन अब नयी पीढ़ी के समाजवादी नेता अखिलेश के लिए ऐसे दागी बर्दाश्त नहीं हैं। नेताजी से अमर सिंह जैसे सियासी लोगों की नजदीकी भी अखिलेश को कभी नहीं भायी। वह अपने सियासी सफर में इस तरह के फौज फाटे को लेकर चलना नहीं चाहते हैं। बदलते सामाजिक व राजनीतिक दौर में उनकी अपनी सोच है, जो नेताजी से अलग है। वह मुलायम के 'राजनीतिक मजबूरी के बोझ' को लेकर चलने को कतई राजी नहीं है।

अखिलेश का यह राजनीतिक नजरिया मुलायम सिंह और उनके 'कुछ' लोगों को भा नहीं रहा है। किन्हीं मजबूरियों के चलते मुलायम सिंह को भी उनका समर्थन करना पड़ रहा है। इसके लिए अखिलेश की घेरे बंदी की जा रही है, जिसे तोड़कर वह कब के बाहर हो चुके हैं। यही अखिलेश की गुस्ताखी है। लेकिन मुलायम सिंह को मालूम है कि पार्टी टूटी या अखिलेश को पार्टी से बेदखल किया गया तो समाजवादी पार्टी बेदम होकर बैठ सकती है।

अपने साढ़े चार साल के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में अखिलेश ने खुद को प्रशासक और सजग राजनेता के रूप में खड़ा किया।

'टीपू' अब सुलतान हो गया है। यह बात मुलायम सिंह यादव का मन अब भी मानने को राजी नहीं हैं। जबकि मुलायम सिंह के 'टीपू' ने खुद को कब का सुलतान बना लिया है। हर बाप की हसरत बेटे को खुद से बड़ा बनाने की होती है। मुलायम सिंह का यह ख्वाब पूरा हो तो रहा है, फिर कौन ही मजबूरी है जो उन्हें अखिलेश की राह का रोड़ा बना रही है।

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