SC का बड़ा फैसला, रेप साबित करने के लिए प्राइवेट पार्ट पर चोट जरूरी नहीं

Update: 2025-03-10 07:41 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने 40 साल पहले हुई स्कूली छात्रा के साथ यौन उत्पीड़न के मामले में आदेश देते हुए कहा कि दोष साबित करने के लिए प्राइवेट पार्ट पर चोट का होना जरूरी नही है. जस्टिस संदीप मेहता और जस्टिस प्रसन्ना की बेंच ने टिप्पणी करते हुए कहा कि अदालतें पीड़िता के निजी अंगों पर चोट न होने पर भी दोषसिद्धि दर्ज कर सकती है, जब रेप के अन्य सबूत इसकी पुष्टि करते हैं. आरोपी की ओर से पेश वकील की उस दलील को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया, जिसमें उसके कहा कि रेप के आरोप साबित नही हो सकते क्योंकि लड़की के प्राइवेट पार्ट्स पर चोट के निशान नही था. उन्होंने यह भी कहा कि लड़की उसके खिलाफ झूठे आरोप लगा रही है.

मेडिकल रिपोर्ट में नहीं पाए गए चोट के निशान

कोर्ट ने कहा कि मेडिकल रिपोर्ट में चोट के निशान नहीं पाए गए थे. हालांकि इसकी वजह से अन्य सबूतों को नजर अंदाज करना सही नही हैं. कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी साफ कर दिया कि कोई जरूरी नही है कि पीड़िता के शरीर पर चोट के निशान ही पाए जाए. कोर्ट ने यह भी कहा कि पीड़िता के निजी अंगों पर चोट का न होना हमेशा अभियोजन पक्ष के मामले के लिए घातक नहीं होता है.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि आपराधिक न्यायशास्त्र का यह स्थापित सिद्धांत है कि बलात्कार के मामले में पीड़ित का साक्ष्य के समान ही महत्व रखता है और पीड़िता की एकमात्र गवाही के आधार पर दोषसिद्धि की जा सकती है. पीड़िता के मां के चरित्र पर भी ट्यूशन टीचर ने गंभीर आरोप लगाए थे. इसपर कोर्ट ने कहा कि अदालत को इसकी सत्यता पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इसका मामले से कोई लेना देना नही है. कोर्ट ने कहा अपनी ही बेटी को फंसाने के लिए झूठा केस दर्ज कराए, इसका कोई कारण नजर नहीं आता.

क्या था पूरा मामला?

बता दें कि 1984 में 19 मार्च को रोजाना की तरह पीड़िता ट्यूशन पढ़ने गई थी. ट्यूशन टीचर के कमरे में बैठी बाकी दो लड़कियों को किसी काम के बहाने से बाहर भेज दिया और फिर कमरा बंद कर लडक़ी से दुष्कर्म किया गया. इस दौरान कमरे से बाहर गई लड़कियां दरवाजा पीटती रही, लेकिन उसने दरवाजा नहीं खोला. इसी बीच पीड़ित लड़की की दादी मौके पर पहुच कर उसे बचाया.

जब पीड़ित के परिजनों ने आरोपियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने रहे थे तो धमकी तक दी गई. लेकिन बाद में एफआईआर दर्ज किया गया. निचली अदालत ने 1986 में दोषी करार दिया था. लेकिन हाई कोर्ट को ट्रायल कोर्ट के फैसले को सही ठहराने में 26 साल लग गए. बाद में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुचा और सुप्रीम कोर्ट ने 15 साल बाद अपना फैसला सुनाया है.

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