प्रेम शंकर मिश्र
एक बार माँ छिन्नमस्तिका अपनी दो सहचरियों के संग मन्दाकिनी नदी में स्नान के लिए गयीं । स्नान के पश्चात् माँ की दोनों सहचरियों को बहुत तेज भूख का आभास होने लगा । सहचरियों ने भोजन के लिये भवानी से कुछ मांगा । माँ ने कुछ देर प्रतिक्षा करने को कहा । सहचरियों की भूख बढ़ती जा रही थी । कहते हैं की भूख कि पीड़ा से उनका रंग काला होता जा रहा था । तब सहचरियों ने नम्रतापूर्वक माँ से कहा की "मां तो भूखे शिशु को अविलम्ब भोजन प्रदान करती है" । ऎसा वचन सुनते ही भवानी ने बिना एक भी क्षण गंवाए, खडग से अपना ही सिर काट दिया । कटा हुआ सिर उनके बायें हाथ में आ गिरा और तीन रक्तधाराएं बह निकली । दो धाराओं को उन्होंने सहचरियों की और प्रवाहित कर दिया तीसरी धारा जो ऊपर की प्रबह रही थी, उसे देवी स्वयं पान करने लगी । अब माँ की दोनों सहचरियां रक्त पान कर तृ्प्त हो गयीं थीं । मान्यता है की तभी से माँ को छिन्नमस्ता के रूप में जाना जाने लगा और माँ इस "छिन्नमस्तिका" नाम से विख्यात हो गयीं ।
माँ को अपने भक्त अत्यंत प्रिय हैं । भक्तों के लिए वात्सल्य की प्रतिमूर्ति है माँ । यदि भक्तों के लिए माँ को अपना सर भी काटना पड़ जाये तो माँ देर नहीं करती । अपना लहू पिलाकर भी भक्तों को नया जीवन प्रदान करती है माँ । माँ का बखान करना तो अपने बस की बात नहीं है, बस यूँ ही समझ लीजिये की कुछ कुछ ऐसी है हमारी माँ छिन्नमस्तिका ….. जय माँ …