कुपढ़ लोग समाजवादियों को राम और भारतीय सनातनी संस्कृति का विरोधी बताने लगे है
कुछ अनपढ़ और कुपढ़ लोग समाजवादियों को राम और भारतीय सनातनी संस्कृति का विरोधी बताने लगे है । उन्हें रामराज्य और समाजवाद पर केंद्रित भाषण एक बार सुनना चाहिए । मैं अपने तर्कों के समर्थन में जननायक भारत रत्न, लोहिया के अनुयायी कर्पूरी ठाकुर का ऐतिहासिक उद्बोधन जारी कर रहा हूँ जो उन्होंने लोहिया कल्पित चित्रकूट में आयोजित रामायण मेला में 6 अप्रैल 1978 को दिया था । इस संभाषण से पता चलता है कि वे राम के अनन्य उपासक और राममनोहर के अप्रतिम अनुगामी थे .....
चित्रकूट में आयोजित रामायण मेला में भाग लेकर मुझे आन्तरिक प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। गोस्वामी तुलसीदास ने जिन आदर्शों के प्रतिपादन के लिये रामायण की रचना की थी वे चित्रकूट की ,पवित्र भूमि पर ही पूर्ण हुए थे। मर्यादा पुरुषोतम भगवान् रामचन्द्र ने उन्हीं महान आदशों की रक्षा के लिए राजसिंहासन छोडकर 14 वर्षों का वनवास 'अपनी इच्छा से स्वीकार कर लिया था। वे यहीं आकर व्यावहारिकता की कसौटी पर कसे गये और खरे भी उतरे। यों तो इस देश में कितने ही तीर्थ-स्थल हैं और अपनी जगह उनका महत्त्तव भी कम नहीं है लेकिन चित्रकूट की पवित्रता और उसकी हैसियत देश के सभी तीरथों से अलग है। महाकवि रहीम के शब्दों में 'जिस पर विपति पडती है वह चित्रकूट आता है। लेकिन चित्रकूट , विपति से भागकर छिपने के लिये शरणरथली नहीं है, यह संतों- साधकों और सर्वोपरि आदर्शों के कष्ट का जीवन स्वीकार करने वालों के लिए संघर्ष और रचना की भूमि रही है। डॉ0 लोहिया जैसे मनीषी और सदैव संघर्ष के बीच रहने वाले व्यक्ति को चित्रकूट यदि प्रिय है तो उसका मूल कारण
चित्रकूट की विश्वास भावना और विश्वास के लिये समर्पित होने की तैयारी ही थी। वे रूढ़ियों तथा कुसस्कारों से ग्रस्त झूठी मान्यताओं के गर्व से फूले लोगों के विरुद्ध सादगी, सच्चाई , त्याग भावना पर आधारित एक संघर्ष चलाना चाहते थे, इसीलिये उन्हें चित्रकूट विशेष प्रिय था । पिछले कई वर्षों से डॉ० लोहिया के इस स्वप्न को साकार करने के प्रयत्न रामायण मेला के माध्यम से किये जा रहे हैं। यह मानते हुए भी कि अभी इस दिशा में विशेष सफलता नहीं मिली है फिर भी हमें इतना तो स्वीकार करना ही
होगा कि जो प्रयत्न हो रहे हैं और निकट भविष्य में होंगे उनके द्वारा चित्रकूट को एक नयी छवि देने में आप अवश्य समर्थ होंगे ।
गोस्वामी तुलसीदास ने रामायण की रचना अयोध्या में प्रारम्भ की और उसका अधिकांश भाग उन्होंने बनारस में लिखा, यों उनकी वैचारिक जमीन चित्रकूट में ही तैयार हुई थी। वस्तुतः वे इस जमीन के पुत्र थे। यहीं की मिट्टी से उनकी शारीरिक और वैचारिक पृष्ठभूमि बनी थी। चित्रकूट उन्हें बहुत प्रिय था। स्वय तो वे बराबर यहां रहे ही, उन्होंने अपनी रचनाओं में बराबर इसकी प्रशंसा करके देश का ध्यान इसकी ओर आकर्षित किया। वे सही माने में शहरी और तड़क-भड़क की जिन्दगी के विकल्प का रूप चित्रकूट की वन संस्कृति के रूप में रखना चाहते थे। उन्हें यहां की धरती इसीलिए तो प्रिय थी ही कि यहां भगवान रामचन्द्र के चरण पडे थे , लेकिन यह उन्हें अपनी भावभूमि के लिए कहीं अधिक रूचिकर लगी थी । उन्हें चित्रकूट , इसीलिए सब दिन और सभी मौसमों में अच्छा लगा था । चित्रकूट की वन संस्कृति न केवल सुरक्षित रही बल्कि वह शहरी संस्कृति के विकल्प के रूप में बराबर लोगों को अपनी ओर आकर्षित भी करती रही। प्रदेश अथवा देश के सभी क्षेत्रों का विकास करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए लेकिन हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि विकास की इस दौड़-धूप में क्षेत्रों की विशेषताएं समाप्त न हो जाए। चित्रकूट का विकास एक विशेष दृष्टिकोण और पद्धति से किया जाना चाहिए वातावरण के प्रदूषण और शहरी भाग-दौड़ दोनों से बचाते हुए इसका विकास एक सुरक्षित क्षेत्र के रूप में यदि किया जाय तो निरिचत ही इससे इस देश के उन लोगों को संतोष होगा जिनके मन में चित्रकूट के प्रति विशेष अनुराग है।
चित्रकूट और इसके आसपास के परिवेश की आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाते हुए भी
कैसे अपनी विशेषताओं के साथ सुरक्षित रखा जाए इस प्रश्न पर आप विचार करेंगे।
चित्रकूट सभा में कभी राम की उपस्थिति में अयोध्या के पूरे समाज ने एक ऐसा निर्णय लिया था जिसने इतिहास की गति मोड़ दी थी। आज यहां एकत्र इस चित्रकूट सभा की इस भूमि की ऐतिहासिक गरिमा का ध्यान रखते हुए ऐसा कछ सोचना
चाहिए जिससे इस देश को नया रास्ता मिले । हम एक चौराहे पर खड़े है और चुनौतियां हमें बराबर ललकार रही हैं । उनका मुकाबला करने के लिए किये जाने वाले फैसले राजधानियों में न होकर यदि चित्रकूट में किये जायें तो निश्चय ही उनका दूरगामी असर होगा।
रामायण केवल एक काव्य ग्रन्थ ही नहीं है। मध्यकाल में और इसक पूर्व हमारे समाज के मूल्यों में ह्वास आ गया था और पतनशील धारणाओं से हमारा समाज जर्जर हो गया था। रामायण की रचना उन नैतिक मूल्यों की रक्षा और उनके विकास के लिए की गयी थी जो हमारी संस्कृति के मूल आधार रहे हैं। काव्य ग्रन्थ के साथ इसीलिए रामायण एक नीति और आचार का ग्रन्थ भी है।
लेकिन इन नीति ग्रन्थों के मुकाबले रामायण में एक विशेषता है जिसने उसे सामान्य ग्रन्थों की कोटि से उठाकर न केवल महान ग्रन्थ की कोटि में रख दिया है बल्कि उसे इस देश कीं आचार संहिता का गौरव भी सौंपती है। रामायण केवल उपदेश ही नहीं देती, वह उन महान गुणों का आचरण करने वालों की कहानी भी सुनाती है। यह कहानी केवल सुख की कहानी नहीं है, इसमें सुख से अधिक दुःख है। यह दुःख त्याग के बाद अपने- आप स्वीकार किये गये कष्ट झेलने से प्राप्त होता है लेकिन कष्ट सहने वाले का व्यक्तित्व अग्नि से तपकर निकाले हुए सोने की तरह दमकता भी है ।
पिता का पुत्र के प्रति, पुत्र का पिता के प्रति, पुत्र का मां के प्रति, मां का पुत्र के प्रति, भाई का भाई के प्रति, स्वामी का दास के प्रति तथा वैसे ही दास का स्वामी के प्रति क्या कर्तव्य होने चाहिए, इसकी व्याख्या रामायण कदम-कदम पर करती है और कुल मिलाकर एक आदर्श समाज का ताना-बाना बुनकर हमारे सामने उपस्थित करती है। आज हमें अपने परस्पर के सम्बन्ध की पुन: समीक्षा करने का अवसर प्राप्त हुआ है, उसका उपयोग करते हुए हमें इस
समाज के ताने-बाने को नये सिरे से फिर बुनना है। यह कैसे बुना जाएगा । इसकी जानकारी के लिये हमें
राम के नजदीक जाना चाहिए ।
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रामायण इसलिये महान नहीं है कि राम के चरित्र का गुणगान करती है बल्कि इसलिए महान है कि वह राम के उन परीक्षाओं के बीच संघर्ष करते हुए चलने की कहानी कहती है जो तब भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी। हमें अपने को चुनौतियों के बीच डालने का अवसर आज भी उतना ही सुलभ है जितना राम के अपने युग में था। मुझे विश्वास है कि इन समस्याओं की गुरूता को आप समझेंगे और इस पर खुले मन से विचार भी करेंगे ।
निषादराज अथवा शबरी को अपने समकक्ष उठाकर बैठा लेना सुनने में बड़ा आसान लगता है , लेकिन इससे स्वयं अपने को किसीं हद तक बदलना कठिन है। इसका अन्दाज केवल उन्हीं को होता है जो यह साहस करते हैं। रामायण ने कभी यह साहस किया था कि बाद में भक्त कवियों ने भी यह साहस किया। आज हमारे सामने फिर यह
चुनौती उपरसिथत है जो फिर हमारे साहस की परीक्षा के लिए उपरिथत है। मुझे विश्वास है कि हम इसके उपयुक्त कार्य करेंगे। मुझे यह भी विश्वास है कि इस सम्मेलन से देश को एक निर्देश प्राप्त होगा ।
( साथ में निर्गत एक तस्वीर मुझ अकिंचन द्वारा रांची में झारखंड के पूर्व मंत्री एवं लोहिया कर्पूरी विचार मंच के अध्यक्ष श्री रामचंद्र केसरी व समाजसेवी रविकांतजी के साथ कर्पूरी प्रतिमा को मल्यार्पण की है , दूसरी तस्वीर जननायक कर्पूरी पर लिखी मेरी पुस्तक के विमोचन समारोह की है जिसका विमोचन नेताजी मुलायम सिंह यादव ने श्री अखिलेश यादव और श्री राजेंद्र चौधरी की मौजूदगी में किया था ।