पुण्यतिथिः पूर्वांचल का वो बागी नेता जिसने कभी इंदिरा गांधी तो कभी राजीव को नकारा, जानें युवा तुर्क के पीएम की कुर्सी तक पहुंचने की कहानी

Update: 2021-07-08 02:21 GMT

उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल हर क्षेत्र में अपने अग्रिम स्थान के लिए जाना जाता है. अब चाहे शिक्षा हो, सेना हो, अपराध हो, खेल हो, फिल्मी दुनिया हो, लेखन हो या फिर राजनीति ही क्यों न हो. पूर्वांचल के लोगों के लिए एक शब्द का अमूमन इस्तेमाल किया जाता है कि इनके खून में लोहा बहुत होता है. यही कारण है कि यहां के लोग सम्मान देने वाले भी होते हैं तो दूसरी तरफ अड़ियल और गुस्सैल रवैया भी रखते है. यहां के लोगों की आदतों में एक आदत बागी होना भी है. इसी कारण ये हर क्षेत्र में पहले पायदान पर दिखाई भी देते हैं. अपराध की बात करें तो पूर्वांचल के कई अपराधी हैं जिनका बोल-बाला पूरे देश में फैला हुआ है. अब चाहे बाहुबली मुख्तार अंसारी हो, बृजेश सिंह हो, त्रिभुवन सिंह, बबलू श्रीवास्तव ऐसे कई अनगिनत बाहुबलियों के नाम हैं जिनकी गिनती के लिए उंगलियां कम पड़ जाएंगी. लेकिन अगर आप राजनीति की भी बात करेंगे तो पूर्वांचल का नाम सबसे उपर आता है. क्योंकि पूर्वांचल की मिट्टी ने भारत के प्रधानमंत्री तक को जन्म दिया है. जीं हां, हम बात करेंगे बलिया जिले में जन्में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की आज पुण्यतिथि है. आज ही के दिन इस युवा तुर्क यानी चंद्रशेखर का देहांत हो गया था

चंद्रशेखर का जन्म 17 अप्रैल 1927 को बलिया के इब्राहिमपट्टी में हुआ था. चंद्रशेखर आम पूर्वांचल के लोगों की तरह ही राजनीतिक व सामाजिक कामों में बेहद रूची रखते थे. कॉलेज की पढ़ाई खत्म होने के बाद चंद्रशेखर पूरी तरह सोशलिस्ट पार्टी  के कार्यकर्ता बन गए. यह बात सन 1951 की है. हालांकि बाद में सोशलिस्ट पार्टी में आई दरार के बाद चंद्रशेखर ने कांग्रेस पार्टी में जाना उचित समझा. लेकिन सन 1977 में देश में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए इमरजेंसी के बाद इन्होंने कांग्रेस पार्टी का त्याग कर दिया. इसके बाद चंद्रशेखर इंदिरा गांधी के खिलाफ खुलकर बोलने व लिखने लगे. यहां इनकी पहचान इंदिरा के मुखर विरोधी के रूप में बनी

चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री का कार्यकाल मात्र 8 महीने का था. लेकिन इनका राजनीतिक सफर काफी लंबा रहा. तमाम मुश्किलों और कठिनाईयों तथा सोशलिस्ट पार्टी से अलग होने के बावजूद चंद्रशेखर ने समाजवादी विचारधारा का त्याग नहीं किया. अपने तीखे तेवरे और बेबाकी से बोलने के अंदाज से चंद्रशेखर सभी को निरुत्तर कर दिया करते थे. चंद्रशेखर को उनके तेवर, बेबाकी से बोलने, विरोधियों पर हावी होने तथा बागी रवैये ने युवा तुर्क के नाम से भी मशहूर किया.

चंद्रशेखर की राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1962 में हुए उत्तर प्रदेश के राज्यसभा चुनावों से होती है. यहां उन्हें उत्तर प्रदेश से राज्यसभा सदस्य चुना जाता है. इसके बाद से वे अपनी आखिरी सांस तक लोकसभा के सदस्य रहे. मात्र 5 सालों के लिए वे सन 1984-1989 तक संसद से दूर रहे. हालांकि सन 1989 में हुए लोकसभा चुनाव में वे बलिया और महाराजगंज  दोनों ही लोकसभा सीटों से चुनाव लड़ते हैं और दोनों जगह उन्हें जीत मिलती है. इसके बाद उन्होंने महाराजगंज सीट से इस्तीफा दे दिया.

चंद्रशेखर को कांग्रेस संसदीय दल का साल 1967 में महासचिव नियुक्त किया गया. इसके बाद चंद्रशेखर ने सामंत के बढ़ते एकाधिकार व सामाजिक बदलाव लाने की नीतियों पर जोर दिया और आवाज उठानी शुरू की. यहीं से चंद्रशेखर को युवा तुर्क कहा जाने लगा. यही समय था जब कांग्रेस पार्टी में सिंडिकेट जैसे शब्द भी सुनाई पड़ने लगे थे. यह चंद्रशेखर का प्रभाव ही था कि कांग्रेस पार्टी के खासमखास रहे नेता भी उनकी छवि में घुल जाना चाहते थे. राजनीति हो या जन आंदोलन चंद्रशेखर की आवाज हर जगह एक जैसी बुलंदी से सुनाई पड़ती रही.

साल 1971 में इंदिरा गांधी की तमाम विरोधों के बावजूद चंद्रशेखर ने कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यसमिति का चुनाव लड़ा और यहां भी उनके हिस्से जीत आई. इसके बाद उन्होंने इंदिरा गांधी की अधीनता को नकारते हुए जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को पूरा और खुलकर समर्थन दिया. कांग्रेस में रहने के बावजूद उन्होंने इंदिरा गांधी द्वारा लागू 'इमरजेंसी' का खूब विरोध किया. चाहे संसद हो या सड़क हर जगह चंद्रशेखर इंदिरा गांधी के इमरजेंसी का विरोध करते दिखे. यही नहीं चंद्रशेखर ने स्वर्ण मंदिर पर इंदिरा गांधी द्वारा सैनिक कार्रवाई का भी विरोध किया.

चंद्रशेखर प्रधानमंत्री कैसे बने अगर ये जानना है तो आपको पहले ये जानना होगा कि विश्वनाथ प्रताप सिंह यानी वीपी सिंह की सरकार कैसे गिरी. देश में साल 1990 के दौरान मंडल कमीशन को लेकर बवाल मचा हुआ था. इस दौरान भाजपा ने वीपी सिंह की पार्टी से समर्थन खींच लिया. वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय का कहना है कि वीपी सिंह की सरकार 2 प्रमुख कारणों से गिरी थी. पहली कि जनता दल के भीतर अंदरूनी कलह मची हुई थी. दूसरी कि राजीव गांधी ने चंद्रशेखर से हाथ मिला लिया था. साथ ही अन्य घटनाओं पर उनका कहना है कि साल 1990 में लाल कृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद भाजपा ने वीपी सिंह की सरकार को दिया समर्थन वापस ले लिया साथ ही लगभग 64 सांसद उस वक्त चंद्रशेखर के समर्थन में आ गए थे. वीपी सिंह की सरकार गिरने का यही प्रमुख कारण बना. इसके बाद साल 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की पार्टी जनता दल का पतन हो गया. अब हालात ये बन चुके थे कि देश में तुरंत चुनाव कराए जाने या फिर वैकल्पिक सरकार बनाए जाने की जरूरत थी. फिर इस बाबत राजीव गांधी ने चंद्रशेखर से बात की और फिर विषम राजनीतिक परिस्थितियों में कांग्रेस पार्टी के समर्थन से चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनाया गया.

चंद्रशेखर की आत्मकथा 'जिंदगी का कारवा' में उन्होंने लिखा है- एक दिन अचानक आरके धवन ने मुझसे आकर कहा कि राजीव गांधी आपसे मिलना चाहते हैं. जब मैं धवन के यहां गया तो वहां राजीव गांधी भी पहुंचे थे. इस दौरान राजीव गांधी ने बातचीत में मुझसे पूछा कि क्या आप सरकार बनाना चाहेंगे. इसपर मैंने राजीव गांधी से कहा कि सरकार बनाने के लिए मेरे पास पर्याप्त सांसदों की संख्या नहीं है. इस कारण सरकार बनाने का मेरा कोई अधिकार नहीं है. इसपर राजीव गांधी ने मुझे कहा कि आप सरकार बनाएं हम आपको बाहर से समर्थन देंगे. इसके बाद से ही चंद्रशेखर पर सवाल उठने लगे थे कि आखिर चंद्रशेखर कांग्रेस के समर्थन से सरकार कैसे बना सकते हैं. इस बाबत चंद्रशेखर ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने को जायज ठहराया. देश में चल रहे मंडल कमीशन के विरोध में खूनी हिंसा के कारण उन्होंने कहा कि मैं देश में शांति लाना चाहता हूं. अभी जो हालात है इसके लिए ही सरकार बना रहा हूं. हालांकि बाद में कांग्रेस सरकार में हस्तक्षेप करने लगी और चंद्रशेखर को यह पसंद नहीं आया और उन्होंने इसे नकार दिया. इसके बाद खबरे सामने आने लगी कि राजीव गांधी चंद्रशेखर से समर्थन वापस ले सकते हैं. ऐसी खबरों के बाद ही चंद्रशेखर ने इस्तीफा दे दिया.

चंद्रशेखर के 8 महीने का कार्यकाल काफी उतार-चढ़ाव से भरा हुआ था. उन्होंने अपने कार्यकाल में सभी चुनौतियों का डंट कर सामना किया और साबित किया कि वे प्रधानमंत्री के पद के लायक थे. मशहूर पत्रकार राम बहादुर राय बताते हैं कि एक बार चंद्रशेखर सार्क (SAARC) सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए मालदीव जाने वाले थे. इस दौरान अमूमन प्रधानमंत्री को विदेश मंत्रालय द्वारा भाषण लिखकर दिया जाता है. इस दौरान चंद्रशेखर ने भाषण को रास्ते में पढ़ा तो जरूर था. लेकिन सार्क सम्मेलन में उन्होंने विदेश मंत्रालय द्वारा बनाया गया भाषण नहीं दिया बल्की अपनी ठेठ भाषा में अपना ही भाषण पढ़ा था. इस कारण भी उनके अंदाज को लोग काफी सराहते हैं और याद करते हैं.


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