दो घटनाएँ हुई हैं पिछले कुछ समय में। एक गोरखपुर वाली, दूसरी कई जगह आई बाढ़। दोनों में सरकार को गरियाते हुए बहुत पोस्ट मिल जाएँगे। आलम ये होता है कि अगर कल तक भाजपा की सरकार थी, और आज काँग्रेस की है तो भाजपा वाले काँग्रेस वाले को ही गरियाने लगते हैं। पार्टी के नाम बदल दीजिए, नैरेटिव वही रहता है।
जो गोरखपुर में हुआ, वो देश के तमाम सरकारी अस्पतालों में होता है। बच्चे मरते हैं। बच्चे बीमारी से मरते हैं, चिकित्सा नहीं मिलने पर मरते हैं, कुपोषण से तेरह लाख हर साल मरते हैं, लेकिन हाँ सिलिंडर के ना होने से ना के बराबर मरते हैं। इसमें प्रशासनिक से लेकर राजनैतिक गड़बड़ी तक बताई जा रही है। कोई कह रहा है कि प्रिंसिपल को बारह परसेंट कमीशन चाहिए था पेमेंट पर, सप्लायर दस पर अटका हुआ था, तो पेमेंट भी अटक गया। कोई कह रहा है कि जो मुसलमान डॉक्टर था वो सिलिंडर बाहर से क्यों ला रहा था जबकि स्टॉक में सिलिंडर तो थे ही। कोई कह रहा है कि उसपर मोलेस्टेशन का आरोप है, इमपरसोनेशन का आरोप है। और मुख्यमंत्री रोते हुए कह गए कि किसी को छोड़ा नहीं जाएगा।
किसी को छोड़ा तो बिल्कुल ही नहीं जाना चाहिए जैसे कि हर हादसे के बाद ये बयान देकर छोड़ दिया जाता है। लोग 'अगस्त में बच्चे मरते हैं' का उपहास कर रहे हैं। जबकि ये बयान इस हादसे के बाद असंवेदनशील ही कहा जाएगा, लेकिन सत्य यही है कि इस महीने में उस इलाके में इसी बीमारी से बच्चों की मौत होती है। ये एक तथ्य है जिसका आँकड़ा आपको मिल जाएगा। अगस्त में बच्चे मरते हैं, लेकिन अगस्त में बच्चे 'मार मत दीजिए' क्योंकि अगस्त आ गया है। सरकारों को हमारी सड़क पर पानी बहाने, और नाले साफ ना करने की मानसिकता का भी कुछ करना चाहिए क्योंकि यहाँ हर काम सरकार को ही करना है। हमारी ज़िम्मेदारी कुछ नहीं है। नाला साफ करने में भी पैसा लगता है? नगरपालिका और पंचायतों का अगर ये काम है तो लोग उन्हें क्यों नहीं घेरते कि हमारा नाला साफ क्यों नहीं है?
अगस्त में बाढ़ भी आती है। एक विद्वज्जन ने ये लिखा है कि बाढ़ आ गई है, अब रिलीफ़ पैकेज बँटेगा। सही बात है, जब हाथ में फोन हो और और उसमें टाइपिंग की सुविधा तो आदमी हर बात पर मज़े ले सकता है। बाढ़ आने पर रिलीफ़ पैकेज ही बँट सकता है क्योंकि बाढ़ से बचने के लिए आज तक किसी सरकार ने तटबंध बनाने आदि का काम सीरियसली नहीं लिया है। बिहार और उत्तरप्रदेश की बाढ़ की तो आपको ख़बर भी होती है, लेकिन क्या आपको पता है कि हर साल कितने लाख लोग असम और मणिपुर में विस्थापित होते हैं? क्या आपको पता है कि कितनी मौतें वहाँ होती हैं?
ये गिरे हुए दर्जे की संवेदनहीनता है कि आप कोई सकारात्मक चर्चा नहीं कर रहे हैं। आपको बच्चों की मौत में भी चुटकुला दिखता है, और बाढ़ से होने वाली हानि में आप मज़ा लेने का तरीक़ा ढूँढ लेते हैं। संदर्भ से हटाकर, बयान का मतलब निकालते हैं क्योंकि फ़लाँ नेता आपके फ़ेवरेट पार्टी का नहीं। जैसे कि वो अगर सत्ता में आ जाएँ तो अच्छे दिन बरस पड़ेंगे ऊपर से! वैसे भी 'अच्छे दिन आएँगे' कहा गया है, समय किसी को नहीं बताया गया है। आपने इसी भविष्यत् काल के नारे पर वोट दे दिया तो आपको मुबारक हो।
सिनिकल होना मानसिक समस्या है। मज़े लेने की प्रवृत्ति एक संक्रामक रोग है सोशल मीडिया पर। बीमारी के इलाज और बचाव पर कोई बात नहीं कर रहा। सबको बयानों पर मज़े लेना है। चर्चा ही करनी है तो वैसी कीजिए जिसका कुछ निष्कर्ष निकले। कोई गोरखपुर का आदमी आपको पढ़े तो वो एक बार सोचे कि ऐसे लोगों को वोट ना दे, अपना मुहल्ला साफ रखे, पंचायत आदि के नेताओं को लोगों के साथ मिलकर पूछे कि जो होना चाहिए वो क्यों नहीं हो रहा।
बाढ़ एक भयावह समस्या है। इस देश में इतने लोग हैं, तो समस्या रहेगी। बाढ़ में भी, सूखे में भी। बीमारी से लोग मरेंगे, कुपोषण से मरेंगे, क्राइम होगा, और इसी बीच किसी-किसी क्षेत्र में विकास भी होगा। विकास की अपनी गति होती है। हर सरकार की कुछ प्राथमिकताएँ होती हैं, जो आपके हिसाब से सही या गलत हो सकती हैं। किसी सरकार को सड़क बनाना होता है, बिज़नेस लाना होता है, लोन माफ करना होता है, तो किसी सरकार को बिजली दिखती है, मैनुफ़ैक्चरिंग दिखता है। एक साथ हर क्षेत्र में सुधार होना तो चाहिए, लेकिन वो हो नहीं सकता।
आपको पाकिस्तान और चीन को जवाब भी देना है, तो रक्षा बजट बढ़ता रहेगा। आपको इन्फ़्रास्ट्रक्चर भी चाहिए, तो उधर का बजट बढ़ेगा। आपको हेल्थ और शिक्षा चाहिए तो किसी का काट कर बढ़ेगी। बजट उतना ही है। आपको रिपोर्ट लिखना है तो आप हर बजट के बाद, हर सरकार को, हर क्षेत्र के नाम पर घेर सकते हैं। आपको कुछ नहीं करना है, आपको ये निकालना है कि किस पर कितना खर्चा है। आप रक्षा पर लिख देंगे कि 'मात्र' इतना लाख करोड़ दिया गया है, जबकि पता चलेगा पिछले साल से ज्यादा है। फिर आप हेल्थ का निकालेंगे कि 'सिर्फ' इतना प्रतिशत है जीडीपी का, जबकि वो पिछले साल से ज्यादा मिलेगा। फिर आप लॉजिक लगाएँगे कि पिछले साल से ज्यादा है लेकिन जनसंख्या बढ़ गई है, क्लिनिक नहीं हैं, डॉक्टर नहीं आते, ये हो गया है, वो हो गया है।
इसका कोई अंत नहीं होता। क्योंकि बजट उतना ही है, और उतने में ही सबको देना है। जिस भी क्षेत्र का कटेगा एक आर्टिकल लिखा जाएगा कि सरकार का ध्यान उधर नहीं है। जहाँ सरकार ने बाहर से लोन लिया, या डेफिसिट बढ़ाया तो आप आर्टिकल लिख देंगे कि आर्थिक मंदी आ गई, अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। ये सब होता रहा है, होता रहेगा। सरकारें इसीलिए ऐसे 'विश्लेषणों' को गम्भीरता से नहीं लेती। सरकार चाहे तो बढ़िया बोलने वाले प्रवक्ता बिठाकर आपको शांत कर देगी।
आपको पता होगा कि आप सही थे, लेकिन आपको तर्कों से शांत कर दिया जाएगा। कुछ तर्क अकाट्य हैं: ये हमें सत्तर साल की विरासत में मिला है। ये कालजयी तर्क है, जैसे कि विपक्ष को कुछ नहीं मिलता तो वो फ़ासिस्ट सरकार बोल देते हैं। किसी को पता नहीं कि ऐसी सरकार होती भी है क्या। बस फेसबुक से एक फोटो निकाल लेंगे जिसमें पाँच बिन्दुओं में लक्षण लिखे रहेंगे, और आप शेयर कर देंगे। काम की बात विपक्ष कभी बोलता ही नहीं।
खुद से पूछिए कि आप क्या सच में संवेदनशील हैं? या आपको चुटकुलेबाजी के लिए विषय चाहिए? मैं भी मारता था चुटकुले। केजरीवाल पर ख़ूब बनाया है। फिर लगा कि चुटकुलों से क्षणिक आनंद आता है, और मैं अगर यही कर रहा हूँ तो मैं भी उसी समस्या का हिस्सा हूँ। मेरे पास समाधान नहीं है, तो फिर किसी की मौत पर, चाहे वो इन्सेफलाइटिस से हो या चिकनगुनिया से, दो लाइन में सरकार को घेरकर हैशटैग चलाना गिरी हुई हरकत है।
भाजपा की समस्या ये है कि इनकी टाइमिंग बहुत खराब है। जैसे कि इस आर्टिकल के लिखने के दौरान अभी अमित शाह का बयान पढ़ा कि 'ऐसा हादसा पहला नहीं हुआ है।' बयान टेक्निकली सही है, जैसे कि 'अगस्त में बच्चे मरते हैं' वाला है। लेकिन नेताओं को समय के अनुसार बयान देना चाहिए। इस बयान से, सौ प्रतिशत सही होने के बावजूद, लोग यही मतलब निकालेंगे, वो भी जानबूझकर, कि आदमी संवेदनहीन है, इसको जीत का गुमान है। मीडिया में इसको ऐसे ही चालाया जाएगा क्योंकि सम्पादक बोलेगा, 'इसको ऐसे चलाओ कि लगे कि संवेदनहीन है, सत्ता का दम्भ है'। हर लाइन के बाद एक प्रश्नवाचक चिह्न और 'धाँय-धाँय' वाला बैकग्राउंड साउंड।
लेकिन आप और हम तो नेता नहीं? कैसे इन चक्करों में आ जाते हैं और 'अगस्त में बच्चे मरते हैं' पर अटक जाते हैं? सरकार तो यही चाहती है कि एक नेता बेहूदा बयान दे दे, लोग उसी में उलझे रह जाएँ कि क्या बकवास बोलता है। आप लोग हमेशा इसी में उलझकर रह जाते हैं। किसी को अस्पताल का हीरो चाहिए, किसी को ये एंगल चाहिए कि सबको इस्तीफ़ा दिलवाओ, किसी को ये चाहिए कि सबको टाँग दो।
अगर ऐसे ज़िम्मेदारी तय होने लगी तब टाँगना तो सबको चाहिए। मुझे भी, आपको भी क्योंकि इनको पंचायत चुनाव से लेकर लोकसभा तक पहुँचने में वोट आप ही ने दिया। आप ही ने उसके सबसे पहले भ्रष्टाचार को ये कह कर होने दिया कि वो आपके गाँव का है, आपकी जाति का मुखिया है तो थोड़ा पैसे कमा ले, क्या जाता है। उसके बाद आप पहले बच्चे की मौत को प्रारब्ध मानकर चुप रहे। उसके बाद दूसरी मौत हुई। फिर दस, सौ और हजार मौतें हुई। सबके पीछे एक बीमारी, एक ही क्षेत्र। दोष भगवान को दिया।
यहाँ आपने दोष क्यों नहीं दिया नेताओं को? यहाँ आपने नगरपालिकाओं और पंचायतों में हंगामा क्यों नहीं किया? क्या वो मौतें सच में 'नेचुरल' होती हैं? साल भर के बच्चे की मौत कब से प्राकृतिक कारणों से होने लगी? कारण तो पता है, बस तब सिलिंडर वाली बात नहीं थी, आज वो एंगल आ गया और आप पागल हो रहे हैं।
खुद को खँगालिए कि आपकी ज़मीन है कहाँ? क्या आपको सिर्फ सत्ता का विरोध करना है या फिर आपको सच में मुद्दे पर बात करके बात को हवा देनी है? होता तो मेरे लिखने से भी कुछ नहीं, जैसे कि आपके चुटकुलों से कुछ नहीं होता। लेकिन मैं फिर भी लिखता हूँ। मैं इसलिए लिखता हूँ क्योंकि मेरी संवेदनाएँ मरी नहीं हैं। मैं खुद को ज़िंदा रखने के लिए लिखता हूँ। मैं इसलिए लिखता हूँ कि मुझे खुद से नज़रें मिलाने में शर्म ना आए कि मैं चुप रहा। आप चुटकुले बनाते रहिए।
अजीत भारती