असली मुद्दा क्या है श्रृंखला मुद्दा नंबर तीन: ऐसी व्यवस्था जहाँ स्टूडेण्ट काउन्सलिंग है ही नहीं!
भले ही हर माँ-बाप ये चाहते हैं कि उनका बेटा डॉक्टर या इंजीनियर ही बने, या वो जो भी बने, वही बने जो वो चाहते हैं, लेकिन हर बार ये बात सही नहीं होती। आप उसको ढकेल के इंजीनियर बना दीजिए, और पता चले कि उसकी रुचि कहीं और ही है। डॉक्टरी की तैयारी करवाते रहिए, बाल उड़ जाएगा और आपकी ज़िद के चक्कर में अपनी पूरी जवानी वो बातें रटने में बिता देगा जिससे उसकी आत्मा तक कलपती है।
कुछ और भी नए आयाम जुड़े हैं जिसमें यूपीएससी है, एमबीए है, और आजकल मीडिया है। यूपीएससी करने की इच्छा रखने वालों में से एक प्रतिशत को भी कभी कहते नहीं सुना कि वो समाज सुधारेंगे, या अपना योगदान देंगे। हर बार सामने वाला यही कहता है कि 'अरे! अथाह पावर है।' इस पावर से वो बिजली बनाएँगे कि क्या करेंगे मालूम नहीं।
ख़ैर, मुद्दा ये नहीं है कि नौकरियाँ कितने तरह की हैं जो भेड़चाल में लोग करने को आतुर हैं। मुद्दा ये है कि स्टूडेण्ट काउन्सलिंग है क्या। इसे समझने से पहले एक अहम बात जाननी ज़रूरी है कि छात्र/छात्रा का मुख्य काम क्या है? विद्योपार्जन, सीखना और अंततः उस सीखी हुई बातों से अपने जीवन में बदलाव लाते हुए, समाज को बेहतर बनाना। साथ ही उस विद्या के बल पर अपने जीविकोपार्जन में लग जाना। इसे आम भाषा में नौकरी करना भी कहते हैं। इसका विकृत रूप यही है कि पढ़ाई करने से नौकरी मिलती है। ये हमारे ज़माने का सत्य है, भले ही वो ठीक हो या ना हो।
जब हम स्कूल जाते हैं तो हम इतने छोटे होते हैं कि हमें जो कहा जाय वो मानते रहते हैं। हमारी रुचि शायद मायने नहीं रखती। ना ही हमारी शिक्षा व्यवस्था में कोई ऐसी कोशिश कहीं भी दिखती है जहाँ विद्यार्थी को ये बताया जाय कि उसकी रुचि के आधार पर वो इस कार्य में बेहतर कर सकता है। उसे सामाजिक पैमानों पर तौला जाता है। अर्थात्, अगर समाज साइंस पढ़ रहा है तो वो कितना भी अच्छा हो दूसरे विषयों में, उसे कमज़ोर मानकर उसका मजाक उड़ाया जाता है।
कुछ विषयों को, कई इलाक़ों में लड़कियों से जोड़ दिया जाता है मानों वो साइंस नहीं पढ सकती, या आर्ट्स इतना तुच्छ विषय है कि कोई भी पढ़ कर पास हो जाएगा। हमारे शिक्षकों, अभिभावकों, समाज आदि को इससे कोई लेना-देना नहीं होता कि विद्यार्थी की योग्यता, उसकी बेहतरी की क्षमता कहाँ है। यही कारण है कि कोटा में छात्र आत्महत्या करते हैं क्योंकि उनको ऐसा बना दिया जाता है कि वो ये मानने लगते हैं कि यही उनकी ज़िंदगी और भविष्य का फ़ैसला करेगी कि वो फलाने परीक्षा में क्या कर पाता है।
ये आत्महत्या नहीं, ये सुनियोजित हत्या है। आपने कभी जानने की कोशिश नहीं की कि बच्चा इंजीनियर बनना चाहता है या उसकी रुचि फ़ुटबॉल खेलने में है। यहाँ कई बार तर्क ये दिया जाता है कि माँ-बाप अपने अनुभव से ये जानते हैं कि उनके लिए क्या ठीक रहेगा। अगर ऐसा है तो फिर उस प्रोसेस का हिस्सा छात्रों को भी तो बनाईए कि वो भी कह सके उसकी गणित में रूचि है या क्रिकेट में।
इस पूरे तंत्र में विद्यार्थी, शिक्षक, स्कूल, अभिभावक, समाज और देश उलझा हुआ है। यहाँ सब स्वतंत्र रूप से काम कर रहे हैं। इंजीनियर बनकर नौकरी मिल जाने का ये मतलब नहीं है कि आपने जो पढ़ा वो काम आ रहा है, या आप वही करना चाह रहे थे। इसका एक ही अर्थ है कि आपने किसी तरह अपने जीवनयापन का ज़रिया ढूँढ लिया जो कि इस रोजगारहीन समाज में बहुत बड़ी बात है।
करियर काउन्सलिंग आजकल होने लगी है। वो भी, अधिकाँश जगहों पर, खानापूर्ति के तौर पर किसी को बुलाकर स्पीच दिलवा दी जाती है। वो भी तब होती है जब एक विद्यार्थी बारह साल पढ़ाई कर चुका होता है। जिसने पढ़ाई में विषय ही गलत चुने हैं, या जिसको पढ़ाई की जगह पेंटिंग करनी हो, गाना गाना हो, उसके लिए कोई उपाय नहीं दिखता। पेंटर को भी एक डिग्री चाहिए, जबकि उसकी कोई ज़रूरत नहीं दिखती। ऐसा तंत्र क्यों नहीं है कि किसी में कोई कौशल है तो उसे उस कौशल के आधार पर आँका जाय ना कि उसके थ्योरी की डिग्री उसको पानी ज़रूरी हो? बारहवीं के बाद काउन्सलिंग में अगर उसे लगे कि उसके चार साल बर्बाद हो गए तब वो कहाँ जाएगा?
तंत्र ऐसा होना चाहिए जहाँ हर शिक्षक के ज़िम्मे कुछ छात्र हों, जिससे वो हर तरह की बातें कर सके, उसकी रुचि जानता हो, उसकी कमियों को समझता हो, उसे मानसिक रूप से तैयार करता हो। यहाँ शिक्षक आमतौर पर छात्रों से उतने ही जुड़े हुए हैं जितने में उनकी कॉपी चेक कर उन्हें नंबर देना होता है। उसका दूसरा कारण ये भी है कि शिक्षकों को और भी बहत्तर तरह के काम सरकार पकड़ा देती है। लेकिन प्राइवेट स्कूलों में, जो लाखों की फ़ीस लेते हैं वहाँ भी, काउन्सलिंग की सुविधा नहीं होती।
क्योंकि ये कॉनसेप्ट ही नहीं है कि कुछ ऐसा भी ज़रूरी है। बच्चों को मनोवैज्ञानिक सलाह की ज़रूरत होती है, जो एक शिक्षक या माता-पिता दे सकते हैं बशर्ते उनके दिमाग़ खुले हों। लेकिन यहाँ काम उल्टा होता है। यहाँ सलाह तो दूर अपनी उम्मीदें, अपनी असफलताओं का बोझ बच्चों पर डालकर वो उसे सर्कस का जानवर बना देते हैं जहाँ आपको नाच-कूदकर कुछ छल्ले पार करने है ताकि समाज तालियाँ बजा सके। जब समाज तालियाँ बजाएगा तभी आप सफल होते हैं। और इसी स्थिति में माँ-बाप और शिक्षक ख़ुद को भी सफल मानते हैं।
पूरा मैकेनिज्म सड़ा हुआ है, और गलत है। लेकिन चल रहा है, क्योंकि चलता रहा है। मेंटॉरशिप जैसी व्यवस्था ना तो स्कूलों में दिखती है, ना कॉलेजों में। छात्र को शिक्षकों से ज़्यादा मार्गदर्शकों की ज़रूरत होती है। कई बार माँ-बाप भी नहीं जानते कि उनका बच्चा कैसा है, क्या करना चाहता है। बच्चे छोटे-छोटे वाक्याँशों में जवाब देते हैं ताकि उन दोनों का ही काम चल जाए, और बिना काम का बवाल ना हो।
ये सारी बातें कच्ची उम्र के अल्पवयस्क छात्र-छात्राओं पर इतना वज़न डाल देती हैं कि उनकी रीढ़ टूट जाती है। वो अपने आपको अपनी ही नज़रों में कमज़ोर मानने लगते हैं, और अंततः या तो समझौता करते हुए एक नौकरी करते हुए पूरा जीवन निकाल देते हैं, या मर जाते हैं। समझौता करना भी आजकल कई लोगों को सही लगता है क्योंकि उनके अनुसार किसी के पास 'कम से कम एक भविष्य तो है, नौकरी तो है।' ये सोच गलत है क्योंकि वो एक तरह से मानसिक कुपोषण है। आपने उसे बढ़ने का मौक़ा ही नहीं दिया और कॉम्प्रोमाइज कराते हुए ज़िंदगी जीने को एक नॉर्मल बनाकर रख दिया।
फिर आप रोना रोते हैं कि देश में ये नहीं हो रहा, वो नहीं हो रहा, टैलेंट कहा चला गया, चाणक्य और आर्यभट्ट् क्यों नहीं होते, मैसी-रोनाल्डो क्यों नहीं हैं हमारे यहाँ... हमने सिर्फ परिणामों की कमी पर बात की है, समस्या की तह में जाने की कोशिश नहीं की है। मार्गदर्शन के अभाव में, गलत चुनाव करने वाले छात्र एक सामाजिक कुव्यवस्था का दंश झेलते हुए, अपनी बात तक कहने में डरते हैं।
हम इसी डर को आज्ञाकारी होने से जोड़कर देखते हुए, उन्हें वो बनने को मजबूर करते हैं, जो वो बनना नहीं चाहते। बेजोड़ बात ये है कि हमें फ़र्क़ भी नहीं पड़ता क्योंकि तंत्र तंत्रवत् चलता रहता है। ये चलता रहेगा, जब तक की इसमें कोई रॉड घुसाकर इसको रोका नहीं गया। जिसका भविष्य है उससे पूछना ज़रूरी है कि क्या वो भी वही भविष्य देख पा रहा है?
अजीत भारती