असली मुद्दा क्या है श्रृंखला..... मुद्दा नंबर सात: खेती की बदहाली, किसान और नेता जनती भीड़ें
सोशल मीडिया पर विचार तो बमुश्किल मिलता है, त्वरित प्रतिक्रियाएँ आम हैं। ये प्रतिक्रियाएँ बिना किसी तथ्य का संज्ञान लिए फ़ौरी तौर पर मिले हेडलाइन पर आधारित होती हैं। कभी-कभी तीन-चार दिन तक उनका सत्य या दूसरा पहलू आप तक पहुँचता भी नहीं। तमिलनाडु किसान वाले प्रदर्शन के समय यही हुआ और मैं इसका शिकार हो गया। किसानों की हालत ठीक नहीं है लेकिन उसके लिए सरकारों के साथ उसके उत्पाद ख़रीदने वाला आम आदमी भी ज़िम्मेदार है।
वो आख़िर बेचेगा किसको? क़र्ज़ लेना ज़रूरी है, और लौटाना भी। कई बार माफ कर दी जाती है, कई बार संभव नहीं होता। इसका एक ही उपाय है, जो बार-बार कमेटियों की बैठकों में प्रस्तावित रहा है कि इनकी ख़रीद कई गुणा ज़्यादा होनी चाहिए। लेकिन हम या आप उतना पैसा देकर गेहूँ, आटा, दाल ख़रीदने से रहे। इसका अर्थशास्त्र मेरी समझ से बाहर है। कार्पोरेट के बिजली बिल माफ होते रहे हैं, किसानों के क़र्ज़ भी। दोनों का इस्तेमाल अर्थव्यवस्था को सँभालने से ज़्यादा वोट और चंदा प्राप्ति ही होती है।
किसान के पास समय नहीं होता विरोध प्रदर्शन के लिए। वो या तो बारिश और आँधी से हुए बर्बाद फ़सल पर सर पकड़ कर बैठा रहता है या फिर फ़सल की तैयारी में लगा रहता है। एक बात तय है कि किसान कामचोर नहीं होता। और किसान इतना उग्र भी नहीं होता कि वो ट्रकों में आग लगा दे, पुलिस की बंदूक छीन ले, कलक्टर को थप्पड़ मार दे। क्या उसे इतना उग्र होना चाहिए? मुझे नहीं पता। क्यों नहीं पता? क्योंकि मैं अपने गाँव के सबसे बदमाश किसान को भी जानता हूँ, लेकिन वो एक दारोग़ा पर भी रौब नहीं झाड़ता। वो ट्रक जलाने से पहले दस बार सोचेगा कि इसमें पकड़े गए तो क्या होगा। उसकी पीढ़ी बर्बाद हो सकती है। ये उसे पता है।
तो क्या रास्ता है सरकार तक अपनी बात पहुँचाने का? मुझे ये भी नहीं पता। मुझे इतना पता है सार्वजनिक संपत्ति का नुक़सान वो तरीक़ा नहीं है। मुझे पता है कि फेसबुक और व्हाट्सएप्प के ज़रिए शहरों तक पहुँच कर आग लगाता किसान कोई सर्वहारा क्रांति नहीं कर रहा। वो किसी के तुरंत नेता बन जाने की चक्कर में फँस रहा है। वो इस्तेमाल हो रहा है किसी के कुचक्र में। ये किसी को नहीं दिख रहा तो वो अलग बात है।
इस आगज़नी, हिंसा की बलि फेसबुक पेज से आह्वान करता नेता नहीं बना। जो मरे वो किसान थे, मज़दूर थे, या वैसे लोग थे जिन्हें बिल्कुल ये अंदेशा नहीं था कि भीड़ पर गोली चलेगी और वो मारे जाएँगे। लेकिन क्रांति तो बलिदान माँगती है, ये नेता चिल्लाते हैं। ये बात और है कि क्रांति ने कभी भी किसी नेता की बलि नहीं ली। हार्दिक पटेल बच जाएगा, श्याम गुर्जर युवा नेता बन जाएगा। और सर्वहारा इस उम्मीद में सड़कों पर इस सुनियोजित 'यज्ञ' की आहुति चढ़ता रहेगा कि वो राजा हो जाएगा।
किसान की समस्याएँ हैं लेकिन कोई भी सरकार कुछ करती नहीं दिखती। क़र्ज़माफ़ी से बेहतर है कि सरकार किसानों की ज़मीनें लेकर सामूहिक उत्पादन करे, किसानों को बीज, खाद, सिंचाई की व्यवस्था दे, और बाद में सब ख़रीदे। बाज़ार को ख़ुद बेचे। किसान को खेती करने दो, उसके सर से ख़रीदने-बेचने का झंझट ख़त्म कर दो। उसके कौशल, समझ का इस्तेमाल होना चाहिए क्योंकि वो व्यापारी नहीं होता। उसे बेचना नहीं आता। अगर उसे बेचना आता तो वो नमक और प्याज़ घर में रखकर उसे अस्सी रुपए किलो तक ले जाने में हर साल सक्षम होता। वो दाल उपजाकर गर में बोरियों में रखता कि क़ीमत दो सौ रुपए किलो हो जाए तो वो बोरी खोलेगा।
कॉन्ग्रेस साठ हज़ार करोड़ माफ कर देती है, भाजपा भी कर देगी लेकिन ये तो पूरी तरह से बर्बाद निवेश है। स्टोरेज, कोल्ड स्टोरेज, मंडियों की स्थिति सुधारने से ही इसपर प्रभाव पड़ेगा। क्या लोकल प्रशासन इसमें सक्षम है कि वो सरकार द्वारा प्रस्तावित मूल्य पर मंडियों तक उत्पाद पहुँचने दे? या फिर भ्रष्ट तंत्र किसानों के गेहूँ के बोरों से लदे ट्रकों को हाइवे पर यह कहकर रोक ले कि वो बनिया है जो ग़ैरक़ानूनी रूप से बेचने जा रहा है। क़र्ज़ माफ़ी की प्रक्रिया किसानों को इस झूठी आशा पर ज़िंदा रखती है कि चुनाव के समय क़र्ज़ माफ हो जाएगा। जो कि हर बार होता नहीं।
ये सब काम कैसे होंगे, वो सोचना मेरा काम नहीं है। जो मैंने लिखा है वो हवाहवाई हो सकता है, बिलकुल बकवास। हो सकता है कि ये करने से बिलकुल ही हानि हो जाए। तो फिर क्या करने से किसान आग लगाने के लिए उकसाने पर हज़ारों की भीड़ बनकर नहीं आएगा, इस पर किसानों के साथ बैठकर बातचीत होनी चाहिए। जो किसानों के साथ काम करते हैं, उन इलाक़ों में रहे हैं, उनसे उनका वास्ता हो, वैसे अफ़सरों को कमेटी में रखिए ना कि किसी भी सीनियर आईएएस को जिनका कृषि से कोई लेना-देना नहीं।
किसान बस एक भीड़ बन गया है जैसे कि पटीदार बनता है, गुर्जर बनता है, जाट बनता है। कभी वो चूहे खाने के लिए इस्तेमाल होता है, कभी मूत्र पीने के लिए, तो कभी ट्रकों में आग लगाते हुए विरोधी सरकार की नींद हराम करने के लिए। सरकारों की नींद हराम होनी ज़रूरी है, लेकिन किसी वर्गविशेष (जाति, कार्य, धर्म आदि) के लोगों की भीड़ को राजनैतिक लाभ लेते हुए नहीं। फिर तो गौरक्षकों की मारपीट भी ज़ायज हो जाएगी, दंगे भी ज़ायज हो जाएँगे।
भीड़ का चेहरा नहीं होता और इस बेचेहरा भीड़ को जुटाने में अब समय नहीं लगता। कॉन्ग्रेस जैसे नकारी गई पार्टी में घुसने के लिए कभी सहारनपुर में दंगे कराकर कोई नेता बन लेना चाहता है, तो कभी किसानों से आग लगवाकर। इन लाशों की छातियों पर कोई राहुल गाँधी खड़ा होकर किसी मोदी से ऊँचा हो जाता है, तो कभी कोई कन्हैया बन जाता है; कभी एक पार्टी सत्ता तक पहुँच जाती है तो कोई इसकी पसलियों की सीढ़ियाँ बनाते हुए आरक्षण की राजनीति से युवा नेता बना दिया जाता है।
किसानों की समस्या से आपको भी कोई लेना-देना नहीं है। आपके घर जब आलू पचास रुपए पहुँचेगा तो आप नहीं ख़रीदेंगे। आप पचास रुपए लीटर अमूल से दूध लेते हैं, लेकिन खुला दूध आप तीस रुपए में भी लेने में महँगाई की रट लगाते हैं। गेहूँ का आटा चालीस रुपए किलो जब तक नहीं होगा, तब तक दो बीघे की खेती करने वाला किसान पूरी ज़िंदगी मेहनत करने के बाद भी अपने बच्चों को अच्छी परवरिश, अपने घर की एक छत और झुलसती गर्मी में बिजली के पंखे का भी इंतज़ाम नहीं कर पाएगा।
आप चाहते हैं कि किसान बस किसान बनकर रहे। आपने किसानों को शहरों में ईंट उठाने को मजबूर किया क्योंकि आपको मज़दूर नहीं मिले। आपके ऑफ़िस की बिल्डिंग में लगी ईंट ढोने वाला किसान अपने गाँव में मेहनत करते हुए मोटे दानों का गेहूँ उगाने में सक्षम था। लेकिन आपने उसके आलू को घर की मिट्टी वाली फ़र्श पर सड़ने दिया। आपने उसके टमाटरों के बंपर उत्पादन को ख़बरों में जगह तो दी लेकिन उसे आठ आने किलो बेचने पर मजबूर किया।
ये क्यों हो रहा है? ये कैसे हो रहा है? ये कब से हो रहा है? ये कब तक होता रहेगा? क्या इसके लिए आग लगाने वाली भीड़ बनना ज़रूरी है? क्या पुलिस को गोली चलाने की ज़रूरत थी? क्या किसान जीन्स पहन सकता है? क्या वो सागर रत्ना का डोगा खा सकता है? क्या वो मिनरल वॉटर पी सकता है?
मेरे पास इनके उत्तर नहीं हैं। क्योंकि मैंने किसानों की समस्या दूर करने वाली पढ़ाई नहीं पढ़ी, ना ही ये वादा किया कि मैं इसे सुधार दूँगा। मुझे फ़र्क़ पड़ता है? नहीं। मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता। फेसबुक पर लिखने के लिए मैं संवेदनशील कविता लिख दूँगा लेकिन मुझे पता है कि मुझे तब तक फ़र्क़ नहीं पड़ेगा जब तक गोली खाने वाला मेरा कोई अपना नहीं होगा। मैं संवेदनशील हूँ, लेकिन मैं अपनी संवेदना भी एक दिन, या एक घंटे से ज़्यादा नहीं दिखा पाता।
मैं भूल जाता हूँ कि उरी में जवान मार दिए गए, किसान पर गोली चली, नक्सली मारे गए, इरान की संसद में हमला हो गया, आईसिस ने बग़दाद की मस्जिद पर बम मार दिया। मैं अपने लिए बोलता हूँ। आप बहुत संवेदनशील होंगे, आपको नींद नहीं आती होगी। लेकिन मैं आपको नहीं जानता क्योंकि मैंने आपको रोते हुए, गाते हुए, उदासी की कविता करते कभी भी एक दिन, एक पोस्ट से ज़्यादा नहीं देखा। आपकी उग्रता, आपकी संवेदना पोस्ट-दर-पोस्ट उठती और गिरती है। वो झूठी है। वो कहीं गम्भीरता से दिखती नहीं। मैं घंटे भर से ज़्यादा इस पर बहस भी नहीं कर पाता।
क्योंकि मुझे पता है कि असली मुद्दा खेती की बदहाली का है, लेकिन उसे क़र्ज़माफ़ी का बनाकर भीड़ बना ली जाएगी। क्योंकि मुझे पता है कि ऐसी भीड़ें बना-बनाकर आगें लगवाई जाएँगी, उनसे पत्थर फिंकवाया जाएगा, उनसे जवानों की जीपों पर गोलियों की बारिश कराई जाएगी। ये भीड़ें कभी भी मुद्दों के लिए नहीं लड़ती, ये भीड़ें युवा नेताओं को जनने का लेबर पेन है।
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