सर्वहारा क्रांति में किस सर्वहारा को सत्ता मिली?

Update: 2017-06-20 04:32 GMT
यूँ तो मैं ये नहीं कह सकता कि मैंने माओ, लेनिन, मार्क्स का लिखा सब पढ़ लिया है, और इस पर सेमिनार में बोल सकता हूँ, लेकिन मोटे तौर पर इनके विचारों को थोड़ा-बहुत समझता हूँ। इनकी बातें नायाब थी, दुनिया की बनाई लीक से परे। अगर शब्दों की बात करें तो इन तीनों ने गरीब या सर्वहारा वर्ग के उत्थान की बात की। मैं बड़े-बड़े जुमले फेंक कर आपको कन्फ्यूज नहीं करूँगा कि तीनों वामपंथ के स्तम्भों ने क्या-क्या कहे और उसका क्या मतलब है। सीधे शब्दों में ये कहा है कि जब बनाते मज़दूर हैं, उत्पादन में पसीना इनका बहता है तो फिर मालिक कोई दूसरा क्यों हो? और अगर मालिक कोई दूसरा है भी तो इनको इतना कम क्यों मिलता है उसी दस घंटे के काम के लिए? 

लेकिन गौर करने पर पता चलता है कि सर्वहारा क्रांति हुई भी तो कभी भी कोई सर्वहारा सत्ता की गद्दी पर नहीं बैठा। माओ एक धनी किसान का बेटा था। लेनिन एक समृद्ध परिवार में पैदा हुए। मार्क्स के बाप बहुत बड़े वक़ील और उनके पास कई विनयार्ड्स थे। मार्क्स ख़ुद को मार्क्सवादी नहीं मानता था। मतलब ये कि सकी जीवनशैली अलग थी। उसका सपना उसके विचारों में था, लेकिन बस सपने से वो ख़ुद ही दूर था। 

सर्वहारा क्रांति में पैदल मार्च तो मज़दूर करता है, लेकिन चेयरमेन तो माओ ही बनता है। वहाँ हमेशा नेता ही बैठता है, और आलम ये है कि रूस और चीन दोनों में कम्यूनिज्म बुरी तरह से फ़्लॉप रहा है, और चीन में ग़रीबी की खाई भारत से भी गहरी है। रूस टूट कर बिखर गया, और पुतिन उसे बचाने के लिए आज भी तेल और टेक्नॉलॉजी के बल पर लगा हुआ है। प्राइवेटाइजेशन और उदारवादी अर्थव्यव्स्था से ही वो बच पाया। 

तो इनका दर्शन क्रांति का जरूर था, पेपर पर सुनकर बहुत फैसिनेटिंग भी लगता है लेकिन वो कभी भी उस स्वरूप में नीचे नहीं आता। चीन में तानाशाही है, वहाँ कोई गरीब आदमी ना तो सत्ता के शीर्ष पर है, ना ही निचले पायदान पर। वो वहाँ है ही नहीं। माओ की बंदूक से निकली क्रांति और शांति दोनों घास चर रही है कहीं। कहाँ, वो भी किसी को पता नहीं। 

वामपंथ एक समय में बढ़िया विचार था। उसके विचार आदर्शवादी हैं। यहाँ एक रामराज्य का सपना है। ये एक यूटोपिया है, जो कि असंभव है पाना। इस पर बात करना, इस कल्पना में जीने की इच्छा अच्छी लगती है। लेकिन सबको पता है कि अगर आप आज के समाज में इसको लागू करना चाहते हैं तो वो असंभव है।

इसके लिए आपको एक नई दुनिया बनानी होगी। उस दुनिया में आपको सत्ता, पावर, पैसा, आदमी सबको एक नए सिरे से पारिभाषित करने होंगे। सबकुछ शून्य से शुरु करना होगा। क्योंकि आज के आदमी को ये कहना कि आठ घंटे काम करने का मेहनताना मालिक और मज़दूर के लिए बराबर हो, ये पागलपन कहा जायेगा। उस नयी दुनिया में आप सबको पहले ही ये बता देंगे तो कोई दिक़्क़त नहीं होगी।

कुल मिलाकर कहना ये है कि हर विचारधारा का एक समय होता है, उसके बाद वो मर जाती है, बीमार हो जाती है, या फिर नकार दी जाती है। समय बदलता है। एक समय फ्यूडलिज्म समाज को ठीक लगा, तो वो रहा। तब ग़ुलामों की ख़रीद-बिक्री सही बात थी। फिर लगा कि अठारह घंटे काम कराना ठीक है। फिर उसमें रेगुलेशन आया। फिर कम्यनिज्म की लहर चली और आज के दौर में किसी भी जगह, शायद क्यूबा को छोड़कर, इसने अपने नागरिकों को बेहतर ज़िंदगी नहीं दी। अब कैपिटलिज्म चल रहा है। कोई भले ही ख़ुद को किसी और नाम से बुलाता हो लेकिन हर देश अपनी ग्रोथ, इंटरनेशनल संबंध, नागरिकों के लिए बेहतर ढाँचे बनाने में व्यस्त है। ये समय की माँग है।

ये विचारधारा भी एक दशक बाद ख़त्म हो जाएगी। फिर कुछ नया आएगा। यही बदलाव शाश्वत है। बाती किताबों में थ्योरी बहुत रोमांच लाती है, जबकि उससे परे कई बार ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और होती है।


अजीत भारती

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