वास्तव में राष्ट्रपति का पद भारत में किसी महत्व का नहीं है। यह पद एक तरह से गुलामी की मानसिकता का द्योतक है जो गवर्नर जनरल वाइसराय की परम्परा का घिनौना नकल है। ठीक बिल्कुल वैसे ही जैसे राज्यों में राज्यपालों का पद। गवर्नर प्रदेशों में अंग्रेजों के प्रतिनिधि होते थे जो क्षेत्रीय शासकीय गतिविधियों पर निगरानी रखते थे। इनको हम अभी भी ढ़ोते चले आ रहे हैं और आगे न जाने कबतक ढ़ोते रहेंगे।
राज्यपाल उन लोगों को महान विद्वान, पंडित, जानकार आदि बता कर बनाया जाता है जो सत्तारूढ दल के दाँवपेंच के शिकार, निकम्मे, अप्रासंगिक हो चुके नेता होते हैं जो देश, काल, परिस्थिति के कारण अब चुनाव तक के लिए अयोग्य हो गये होते हैं।
राष्ट्रपति का पद भी बिल्कुल वैसा ही है। मुझे तो इस पद से घृणा है पर इसे और घृणित बनाया श्रीमती इंदिरा गांधी ने, उससे पहले चलते हैं, देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद की ओर। उनका चुनाव भी कम रोचक नहीं था जब पंडितजी, वी पी मेनन को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, पर सरदार पटेल के कड़े हस्तक्षेप के कारण राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति बन सके थे। प्रारम्भिक दो राष्ट्रपतियों यानी सर्वपल्ली राधाकृष्णन तक को छोड़ दिया जाय तो बाद के सभी राष्ट्रपति राजनीतिक रोटी-गोटी के चलते राष्ट्रपति बने हैं आजतक। श्रीमती इंदिरा गांधी ने तो इस पद और शासन, यानी राष्ट्रपति शासन का जो मजाक उड़ाया वह भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास का बेहूदगी भरा उदाहरण है। नीलम संजीव रेड्डी सत्तारूढ कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार थे पर इंदिरा जी ने वी. वी. गिरि को ऐसा आशीर्वाद दिया कि नीलम संजीव रेड्डी चुनाव हार गए। जो बाद में जनता पार्टी के अल्प कार्यकाल में कांग्रेस की, या यूँ कहें कि इंदिरा जी की उदासीनता के कारण राष्ट्रपति बन पाए और यह वी. वी. गिरि इतने निकम्मे रहे कि बांग्लादेश कैसे बना और इमरजेंसी कैसे लगी, यह मरने के बाद भी नहीं जान सके। ज्ञानी जैल सिंह जो राष्ट्रपति बनने के बाद भी इंदिरा जी के कार का फाटक खोलने दौड़ पड़े थे, कितने बड़े चमचे थे इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नेहरू जी के कुर्ते में गुलाब लगाने की परम्परा का निर्वाह मरते दम तक इन्होंने किया। आर. वेंकटरमण जिनकी देखरेख में कभी भारत में पहला रक्षा घोटाला हुआ था, हों, या डा. शंकर दयाल शर्मा हों तीनों सेना के एक ऐसे प्रमुख जिनको जमीन पर बैठना छोड़ो कायदे से चलना तक नहीं आता था तक भी बड़े विद्वान राष्ट्रपति हुए। फिर हमने देखा भारत के पहले दलित ईसाई राष्ट्रपति कुचिरल रमन नारायणन को। अनोखे-अनोखे नमूनेदार राष्ट्रपतियों की परम्परा जारी रही जब अटल जी 28 दलों के भानुमती के कुनबे की सरकार को चलाते हुए, एनडीए की गठबंधन की सरकार में एक ऐसा चेहरा खोजा जाने लगा जिसे खड़ा कराकर राष्ट्रपति का चुनाव जीतवाया जा सके तो उन्हें एक गैर राजनीतिक वैज्ञानिक चेहरा मिला अबुल कलाम का। जिनके प्रत्याशी घोषित होते ही भैरो सिंह शेखावत बेचारे चल बसे थे। कलाम साहब की मैं बहुत इज्जत करता था पर दुबारा राष्ट्रपति बनने के फेर में जब उनको कांग्रेसी दफ्तर के चक्कर लगाता देखा तो समझ लिया कि कुर्सी का एक अपना अलग टेस्ट है।
कलाम जी के बाद आईं प्रतिभा देवी सिंह पाटिल जो इंदिरा जी की सेविका रहीं और जाते-जाते सुना है केवल राष्ट्रपति भवन ही अपने घर नहीं ले जा पायीं नहीं तो बाकी सब ले के चली गईं। फिर प्रणव दा आए राष्ट्रपति बन कर तीन-तीन बार प्रधानमन्त्री बनने का मौका गवाँ चुके थे, एक बार इंदिरा जी की हत्या के बाद, फिर राजीव जी की हत्या के बाद अंत में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने का मौका फिसलने के बाद, तो सोनिया जी ने मनमोहन जी को बड़ी मुश्किल से उनको राष्ट्रपति पद से पुरस्कृत कर थोड़ी बहुत सांत्वना दे दिया।
अब श्री रामनाथ कोविंद जी आ रहे हैं। आइए आप दलित हैं पूरा भारत जान गया क्या हुआ दलित आपको नहीं जानते और आडवाणी जी जिन्ना का जिन्न आपको खा गया अब मान भी लीजिए। जोशी जी तो चढ़ते सूरज को सलाम करना जानते ही नहीं, टीचर रहे हैं न।
आइए प्रथम पुरुष
आलोक पाण्डेय
बलिया