ज़िंदगी छोटी है। धरती गोल है। ट्रक में कई पहिए होते हैं। टीवी कलर में आने लगा है, लोग ब्लैक एण्ड व्हाइट में जी रहे है। इन वाक्यों का एक दूसरे से कोई मतलब नहीं है। लेकिन चूँकि आप मुझको पढ़ते हैं, को मतलब ढूँढने की कोशिश कर रहे होंगे कि ये लिख रहा है तो कोई बात होगी। कोई बात नहीं है।
इन्टॉलरेंस याद है? साम्प्रदायिकता याद है? आपातकाल? ये सब कीवर्ड याद रखिए क्योंकि आने वाला समय जब हमें इतिहास में जाकर देखेगा तो उसे यही कीवर्ड दिखेगा, कई हैशटैग्स के साथ। क्योंकि हमारा पूरा समय हमारे समय के बुद्धिजीवियों ने, खुद को जनता की आवाज़ कहने वालों ने, कवियों ने लेखकों ने, आलोचकों ने, पत्रकारों ने महज़ कीवर्ड्स और हैशटैग्स में नाप दिया है।
नैरेटिव का बदला नैरेटिव से दिया जा रहा है। एक ही शब्द को इतनी बार कहा जा रहा है कि सेंसिबल आदमी भी एक बार सोचने लगता है कि नहीं यार, जुनैद को तो नाम पूछकर ही मार दिया होगा, सीट का झगड़ा तो सरकार अपने बचाव के लिए इस्तेमाल कर रही है। लेकिन याद रखिए कि ये देश सिर्फ तीन महीने के लिए लिए इन्टॉलरेंट हुआ था। हो ना हो, यही कारण है कि हम विश्वगुरु रह चुके हैं। क्योंकि पूरे देश का आचरण तीन महीने में असहिष्णु होकर वापस सहिष्णुता तक पहुँचा देना बिना प्रचंड योगशक्ति के संभव नहीं। हाँ, बिकी हुई मीडियाशक्ति से ये जरूर संभव है।
इसीलिए मैं अपने समय के एंकरों को, लिंकपिपासु ट्रोल सेना को आदियोगी से कम नहीं आँकता। ये हर महीने देश का आचरण सामूहिक रूप से बदलने में सक्षम हैं। उस पर तुर्रा ये कि यही लोग आपको इन्हीं बातों की दुहाई देते नज़र आएँगे। ये अपने ही तरह के लोगों के साथ सेमिनार करेंगे, सभाएँ करेंगे और वहाँ जो विष घोलने का काम ये करते हैं, उसे सरकार के ऊपर फेंक कर सफ़ेद चश्मे के नीचे की स्याह आँखों में बेहयाई की परत चढ़ाए अपना नक़ली चेहरा ओढ़े निकल लेते हैं।
आजकल का नया आचरण आया है देश में 'लिंचिंग' का। यानि की भीड़ द्वारा घेरकर मार देने की बात। जैसे व्याकरण में अपभ्रंश बताया जाता है, वैसे ही मूल शब्द 'सीट' होता है, फिर वो 'मीट' होता है, और दिन के अंत तक 'बीफ़' होता है। आप कहेंगे कि अजीत जी, ये आप पहले भी लिख-बोल चुके हैं। जी हाँ, मैं लिख चुका हूँ, बोल चुका हूँ लेकिन ये बंद नहीं होगा। इन मीडिया के बिके हुए मठाधीशों के नैरेटिव का काटने के लिए मैं उन्हीं का तरीक़ा अपनाता रहूँगा। बार-बार एक ही बात बोलूँगा कि वो झेल जाएँ।
बीबीसी लिखता है कि क्या ये भारत में हिन्दुओं के सैन्यीकरण की पहली आहट है? वाह! अतिसुन्दर। इन्हें आप दोगला भी नहीं कह सकते। इनकी प्रवृत्ति आज भी वही है जो औपनिवेशिक दिनों में थी। आज भी इनकी हर बात वैसी ही है जैसी लाइन खींचकर दो देशों को अलग कर देने वाली सोच थी। बीबीसी के उस चूतिये पत्रकार से पूछा जाय कि मस्जिदों में नमाज़ पढकर निकलने वाले मुसलमानों द्वारा संगठित रूप से कश्मीर, और मेरठ में भी, पत्थरबाज़ी धार्मिक सैन्यीकरण है, या फिर जुनैद को घेर कर मार देने की बात? उस चूतिए स्तम्भकार से ये पूछा जाय कि अगर हिन्दुओं का सैन्यीकरण एक मुसलमान की हत्या से दिखता है तो फिर तमाम आतंकी हमले करने वाले मुसलमानों को तुम 'आतंक का कोई धर्म नहीं होता' से कैसे मापते हो?
वो पत्रकार इस घटना पर आहत हो लेते हैं और कहते हैं यात्री अपने जान की स्वयं ज़िम्मेदार है, जिन्हें आपातकाल तब तक नहीं दिखता जब तक उनके चैनल द्वारा पाकिस्तान के आतंकियों को, सरकार द्वारा निर्देश जारी करने के बावजूद, पूरे एयर बेस की जानकारी लगातार देते रहने पर प्रतिबंध की घोषणा होती है! उन्हें बाग़ों का बहार तब तक नहीं दिखता जब तक उनके मालिक की गर्दन पर पैसों की होराफेरी के लिए जाँच नहीं बैठती।
ये हैं हमारे दौर के आदर्श। ये हैं जो एक सौ तीस करोड़ की जनसंख्या में चार हत्या से भारत को 'लिंचिस्तान' कहने लगते हैं। ये हैं हमारे देश के आदर्श पत्रकार जो मोदी और ट्रम्प के राजनयिक दौरे पर जुनैद के माँ की ईद की चिंता करती दिखती है, लेकिन अयूब पंडित को कन्वीनिएँटली भूल जाती है। इनके आदर्श इनके लिप्सटिक की तरह हैं, चमकीले, भड़कीले, गहरे और भीगे से, लेकिन हर शाम वो धुलती है, और होंठों का नंगापन बाहर आ जाता है।
इन चेहरों के होंठों की नग्नता पहचानिए। इन्हें सिर्फ एक आयाम पर मत आँकिए। ये धूर्त हैं, इनका गिरोह है। ये एक साथ सुनियोजित और संगठित तरीक़े से हमला बोलते हैं। ये कीवर्ड और हैशटैग ट्रेंड कराने के चक्कर में जुनैद की माँ के आँसू, अखलाख के ख़ून, वेमुला के शब्दों की ताप पर रोटियाँ सेकते हैं। और फेंक देते हैं हर उस लाश को दूर अलग जिसमें अयूब पंडित की हत्या सिर्फ इसलिए होती है क्योंकि उसका सरनेम पंडित था; प्रशांत पुजारी, डॉक्टर नारंग की लाशें गायब कर दी जाती हैं इनके शब्दविन्यास से क्योंकि वो हिन्दू थे; केरल की दलित लड़कियों की आत्महत्या पर चर्चा नहीं होती क्योंकि इनके आकाओं का चुनावी रथ रुक चुका होता है।
इन शातिर आँखों की चमक पहचानिए। इन्हें तौलिए इन्हीं के शब्दों से। इनसे पूछिए कि कितने नजीब अहमद को इन्होंने लगातार मीडिया कैम्पेनिंग से न्याय दिला दिया? इन्हें पूछिए कि भीड़ द्वारा की गई दो हत्यायों में से एक ही भारत की छवि कैसे खराब कर रहा है? इन्हें पूछिए कि केरल में हर सप्ताह काटे जा रहे संघियों के माँ-बाप होते हैं या फिर उनकी माएँ ईद नहीं मनातीं तो उस पर ट्वीट करना बेकार है? इनसे कहिए कि बाहर आएँ और हमें समझाएँ कि ज़िंदगी भर प्रखर हिन्दुत्व के प्रतीक माने जाने वाले आडवाणी से अचानक सहानुभूति क्यों है? इनसे पूछिए कि कोविंद की उम्मीदवारी दलित टोकनिज्म कैसे है, और शिंदे का होम मिनिस्टर बनना दलित सशक्तिकरण कैसे था?
ये जो उदाहरण लें, आप वैसे ही उदाहरण निकालिए। परेशानी नहीं होगी क्योंकि इस देश में जुनैद भी मारा जाता है, पुजारी भी; यहाँ नजीब अहमद भी गायब होता है और रमेश-सुरेश-महेश भी; यहाँ बुरहन वनी का बाप हेडमास्टर है तो उसकी गोलियों से मरने वाले जवानों के बाप भी; यहाँ मरे नक्सलियों के मानवाधिकार हैं तो सीआरपीएफ़ के जवान के भी।
इन दोगलों ने लगातार नैरेटिव बनाने की कोशिश की है। ये इनका पेशा है। ये यही करते हैं, और इतना किया है कि प्रवीण हो गए हैं। आपको धूर्त बनने की ज़रूरत नहीं है। आपको भी इन्हीं की तरह सेलेक्टिव होना है। वो मुसलमान की मौत पर लिंचिस्तान करें, तो आप दस हिन्दुओं की मौत की बात रखिए। घबराईए मत, हर मुसलमान की मौत पर दस हिन्दू मरता ही है इस देश में। जनसंख्या इतनी है कि लोग मरेंगे ही, लोग मारेंगे ही। इसमें धर्म नहीं होता, इसमें मौतें होती हैं, जिसमें चालाक लोग धर्म घुसा देते हैं। जब वो धर्म-धर्म खेलें, तो आप भी खेलिए।
ज़हर की काट ज़हर ही है।
अजीत भारती