मरणम मंगलम से मोमोज तक.....

Update: 2017-07-11 13:33 GMT
बनारस के बारे में कहा जाता है 'मरणम मंगलम यत्र विभूतिश्च विभूषणम' अर्थात यहां मरना भी मंगलमय है।यह अचानक इसलिए याद आ गया कि बनारस में ही हूँ अभी और सड़क पार कर रहा था।खैर बहुत बदल गया है बनारस। लंका के आसपास जहाँ पहले गोलगप्पे वालों की दुकानें सजती थीं वो जगह अब 'मोमोज वालों ने ले लिया है। मोमोज चायनीज व्यंजन है युवा वर्ग इसे बहुत पसंद कर रहा है।पीयूष ( Piyush मेरा विद्यार्थी है अभी बीएचयू से ही फ्रेंच भाषा में एम ए कर रहा है) ने एक प्लेट मोमोज मेरे हाथों में भी दे दिया है।शाम होते ही ये जगह मोमोजप्रेमी नायक- नायिकाओं से भर जाती है। मैं भी 'गोलगप्पे से मोमोज तक' की कालयात्रा में खो गया हूँ। 
             पहले जहाँ पांच रुपये के गोलगप्पे में 'संध्याभिसारिका नायिका' को विभिन्न खट्टे मीठे रसावयव प्राप्त हो जाते थे, वहीं अब पचास रुपए के मोमोज खा लेने पर भी नायिका 'औत्सुक्य' और 'लेटेस्ट ट्राई समथिंग यू' वाली अवस्था में ही रहती है।गोलगप्पे प्यार का देशीय रुप होते थे,मतलब सौ प्रतिशत गारन्टेड। इसलिए नायिका के विवाहोपरान्त नायक अक्सर गाते हुए दिखते थे - 'तेरा गम अगर न होता तो शराब मैं न पीता'। यह मोमोज चायनीज है, इसलिए अब के नायक नायिका 'ब्रेकअप पार्टी' देते हैं और फिर 'लेटेस्ट ट्राई समथिंग'.... 
यह पीढ़ी फिल्मों को सीधे दिल पर लेती है।डायलॉगबाजी से लेकर चलने तक, कपड़ों से हेयरस्टाइल तक का चलन आम हो जाता है। किसी फिल्म में रणवीर कपूर ने हल्की सी डाढ़ी क्या रख ली, शहर के हजामों की जान पर ही बन आती है।
            इधर अस्सी घाट तुलसी घाट रीवा घाट पर चाय की दुकानों के आसपास कुछ काॅलेजिएट बैठते हैं। चाय की चुस्कियों के बीच छोटी 'गोल्डफ्लैक' के कुछ गहरे कश भी होते हैं।जिनसे यह पता चलता है कि कहीं न कहीं अन्दर दिल जल रहा है। तिस पर मुहब्बत का आलम ये कि धुएँ से उसी बेवफा की तस्वीर बन जाती है। घाट पर चारों तरफ रौशनी का आलम है। दिन और रात में कोई अंतर नहीं रह गया है। अंतर तो लड़की और लड़के में भी नहीं है अब।पांच सात लड़कों के ठहाके लगाते ग्रुप में एक लड़की भी है यह पता करना मुश्किल है। बीएचयू के 'पिया मिलन चौराहे' (पी एम टी) से चल कर मधुबन के रास्ते होकर अस्सी घाट तक आने वाली मुहब्बत को कब मधुमेह हो जाता है कुछ पता ही नहीं चलता। कमबख्त नेलपाॅलिश भी इतनी जल्दी नहीं उतरती,जितनी जल्दी लोग दिल से उतर जा रहे हैं।पहले जिस उम्र की उंगलियां अभी क्रोशिया के साथ लचक सीखती थीं आज उसी उम्र की उंगलियां स्क्रीन टच मोबाइल पर थिरक रही हैं। इस 'अस्थि चर्म मय देह' को पेडीक्योर-मेडीक्योर से लेकर माॅस्चराईजर,फेसवाॅश,फेसक्रीम ने बाजार बना दिया है। नायिका के जुल्फों का रंग अब ब्राउन,बारगंडी या पर्पल हो रहा है 'बदली' को उपमान कहने का जमाना गया। तभी तो किसी शायर ने कहा कि - 
अब तो काले रंग के भी हो रहे गुलाब। 
दिले नादां गुलाबी रंग किसे कहें बता।। 
साहित्य में जिस उम्र की नायिका को 'अज्ञात नवयौवना नायिका' कहा जाता था वो 'आए एम इन लव' का उद्घोष कर रही है।उम्र से पहले ही बड़ा हो रहा यह विभाव अनुभाव और संचारी भाव 'समर्पण' को मात्र देह के स्तर पर ही समझ रहा है।'आए एम इन लव' और 'प्रेम में होने' के बीच वही अंतर है जो गोलगप्पे और मोमोज में है। गोलगप्पे में धैर्य की आवश्यकता होती थी। समूह में खड़े हुए खाने वाले लोगों को अपनी बारी आने की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी।मोमोज एक ही बार प्लेट में मिल जाता है इसमें गति है, स्थायित्व नहीं। 'सामूहिकता' की भावना भी नहीं मोमोज में। इसलिए 'आए एम इन लव' वैयक्तिक बन गया है। 'आए एम' ही मुख्य है 'इन लव' नहीं।आंखों में एसिड और खून भरे स्वर में 'तू सिर्फ मेरी है, किसी और की होने नहीं दूंगा' टाइप संवाद बोलने पर नायिका आंखों में प्यार भरे नायक को कहती है- यू रास्कल! 
जबकि प्रेम में होने का अर्थ ही दूसरा है। तुलसी का प्रेम 'प्रेम में होना' है। यह प्रेम वैयक्तिक नहीं होता।प्रिय की छवि ही हर जगह दिखाई देती है फिर तो सबके लिए वही प्रेम वही आदर। तभी तो तुलसी का प्रेम कहता है - ''सियाराम मय सब जग जानी। करहूं प्रनाम जोरि जुग पानी।'' इसमें सम्मान देना लेना नहीं है। अपने आप हाथ जुड़ जाते हैं।इसमें 'यू रास्कल' टाइप फीलिंग्स नहीं, 'देवि,सहचरी,प्राण' जैसी अनुभूति है।यह प्रेम में होना ही है जो कबीर को 'जित देखूं तित लाल'ही दिखा रहा है.... 
       अब शायद चलने का समय हो गया है। क्योंकि एक रिक्शेवाले से पीयूष पूछ रहा है' एल बी सी' चलोगे? यहाँ हर चीज का शार्टकट है।' लालबहादुर शास्त्री छात्रावास' एल बी सी हो गया है।उम्र से थोड़े बूढ़े रिक्शेवाले के बीस रुपए कहते ही एक नया रिक्शेवाला पंद्रह रुपये में तैयार हो गया।अब बीस रुपए वाला बूढ़ा उदास मन से जाने लगा है। पीयूष ने उसे रोका और मुझसे बैठने को कहा। मैं चुपचाप बैठ तो गया हूँ लेकिन छात्रावास की सीढियां चढ़ते हुए कहा मैंने - पीयूष तुम पांच रुपए की कीमत नहीं समझते? जब दूसरा पंद्रह रुपये में आ ही रहा था तो बीस रुपए खर्च करने की क्या आवश्यकता थी? 
पीयूष कहता है - सर मैं जानता हूँ कि मैंने पांच रुपए अधिक दिए हैं। लेकिन पांच रुपए से ज्यादा कीमत उसके बुढ़ापे की थी।
मैं प्यार से पीयूष को देखकर मुस्कुरा देता हूँ। वहां कुछ नहीं कहता।कुछ कहने की आवश्यकता भी नहीं।पीयूष 'सुजान' नहीं 'सहृदय' बन रहा है। 
अचानक पीयूष ने कहा सर मुझे मोमोज अच्छा नहीं लगता।
मैंने बस इतना ही कहा - मुझे भी। 

असित कुमार मिश्र 
बलिया

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