हिन्दुओं में एक कहावत है हमारे गाँव में: नाया जोगी गाँर में जट्टा। आशय यह है कि जो नया-नया जोगी/योगी बनता है वो जटाएँ सिर्फ सर पर ही नहीं बढ़ाता, बल्कि अपने मलद्वार में भी जटा बना लेता है। उसको तुरंत जोगी बनने की, और फिर असली जोगी बनने की इच्छा होती है, और वो ऐसे दिखने की कोशिश में जगहँसाई कराता है।
इस देश के कई मुसलमानों का भी यही हाल है। आतंकवादियों से इस्लाम पर कभी ख़तरा नहीं आता, लेकिन इरफ़ान की बीवी के हाथों से, शमी का पत्नी के साथ फोटो खिंचाने से इस्लाम बार-बार ख़तरे में आता रहता है। एक पूरी भीड़ है मुसलमानों की जो सोशल मीडिया पर हमारे देश के खिलाड़ियों आदि पर अपने मतलब का इस्लाम थोपते नज़र आते हैं। जहाँ इस्लाम की वकालत करनी चाहिए, वो वहाँ या तो मक्का की तस्वीर लगा कर माशाल्लाह करने लगते हैं, या फिर ग़ालिब के शेर लिखने लगते हैं।
भारत में मुसलमान हैं, जैसे और देशों में हैं। ये उतने ही बँटे हुए हैं, जितने बग़ल के देशों के मुसलमान। इनकी समस्या ये है कि फिर भी इनको पूरी दुनिया के मुसलमानों को अपने हिसाब से चलाना है। हलाँकि पूरी दुनिया के मुसलमान जिस हिसाब से चलते हैं, वो यहाँ के मुसलमानों को मुसलमान ही नहीं मानते। खैर, किसी भी मुसलमान को बाहर के मुसलमानों से सर्टिफ़िकेट लेने की ज़रूरत भी नहीं। सर्टिफ़िकेट क़ुरान में है जो हर मुसलमान ले सकता है, उसको अरब के लेमिनेशन की ज़रूरत नहीं।
लेकिन दुविधा ये है कि मुल्लों का इस्लाम क़ुरान के इस्लाम से अलग है। जैसे कर्मकाण्डी पंडितों का हिन्दुत्व अलग ही होता है। यही कारण है कि इस्लाम के नाम पर बम फोड़कर चीथड़ों में बँटकर मरते हुए काफ़िरों को मारना शहादत है जो अल्लाह को, और बाय डिफ़ॉल्ट इस्लाम को, बहुत ही प्रिय है, लेकिन कोई अपनी पत्नी के हाथ और चेहरे की तस्वीर सोशल मीडिया पर शेयर करे तो वो अप्रिय है।
लॉजिक? लॉजिक गया सर मुँड़ा कर तेल लेने। फोन पर पोर्न देखने वाले, और लड़कियों की तस्वीरों पर माशाल्लाह लिखने वाले इरफ़ान को ये ज्ञान देते हैं कि 'चेहरा तो उन्होंने हाथ से छुपा लिया जो कि इस्लामी दायरे में है लेकिन हाथ नहीं दिखना चाहिए था, वो गलत है।' इनका इस्लाम इतना ही होता है कि फलाने की बीवी का क्या-क्या दिख गया! हाजी अली वाले समय ये कहा गया था कि स्त्रियाँ जब झुकती हैं तो उनके स्तन दिखते हैं इसलिए उनको जाने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए।
ऐसे पोस्ट पर आप जाएँ तो आपको पता चलेगा कि लोगों के पास कितना समय है और लोगों को दूसरों की बीवी को उनके हिसाब का इस्लाम मनवाने की कितनी खुजली होती है। यही मुसलमान आपको किसी भी आतंकी हमले के बाद, याकूब मेमन, बुरहान वनी जैसों के जनाज़े की भीड़ वाले फोटो पर आपको ये लिखते नज़र नहीं आएँगे कि 'क़ुरान कहता है एक इन्सान की जान लेने वाला पूरी मानवता का हत्यारा है।'
नहीं, ये उनको किसी कठमुल्ले ने बताया ही नहीं। कठमुल्ले ने तो ये कह रखा है कि पूरी दुनिया पर इस्लाम आएगा, और उनके पास की पर्सनल क़ुरान में ये फ़रमाया है अल्लाह ने कि इस्लाम की राह में अगर कोई ना आ रहा हो तो जर्मनी में जाकर नए साल के जश्न के समय तुम इस्लाम को उनके देश में ले जाओ, और बम से उन्हें ये कह कर उड़ा दो कि वो इस्लाम की राह में आए थे। ये कौन सा इस्लाम है और ऐसे इस्लाम पर तहज़ीब और पर्दे की बात करने वाले ये चूतियों की फ़ौज कहाँ विलुप्त हो जाती है?
क्या वो अपने कमरे में लगे क़ाबा के पोस्टर देखने लगती है कि हाय अल्लाह! क्या हो रहा है दुनिया में? क्या उनके हाथ और दिमाग़ सुन्न पड़ जाते हैं कि अल्लाह का नाम लेते हुए कैसे कोई बेस्टील डे परेड में, नीस में, पेरिस में, लंदन में, ब्रुसेल्स में जब कोई सैकड़ों निर्दोष लोगों को मार देता है? अगर हाँ, तो कब तक सुन्न रहता है? या होश में आते ही 'अल्लाहु अकबर' करते हुए फिर कहीं कुछ हो जाता है और आप सुन्न ही रह जाते हैं? फिर इरफ़ान की बीवी के हाथ और हाजी अली में झुकती औरतों के स्तन आपको कैसे दिख जाते हैं?
वो मुसलमान, जो एक महिला के हाथ को देखकर इस्लाम की परिभाषा तय करने लगते हैं, उस वक़्त कहाँ चले जाते हैं जब दस करोड़ मुसलमान महिलाओं में सिर्फ दस लाख ग्रेजुएट हो पाती हैं? उस समय वो मुसलमान कहाँ होते हैं जब उनके नेता तीन तलाक और निकाह हलाला की वकालत करते हुए औरतों के मूल अधिकार के हनन को ज़ायज ठहराते हैं?
इस देश का, और शायद पूरे विश्व का, ये दुर्भाग्य है कि मुसलमान हर उस झंडू बात पर बोलते हैं जिस पर बोलने की कोई ज़रूरत नहीं है; और वो हर उस बात पर चुप रहते हैं जिस पर गला फाड़कर चिल्लाने की ज़रूरत है कि इस्लाम के नाम पर ये बंद करो।
अजीत भारती