हम सुरक्षित कहाँ हैं?

Update: 2017-08-18 02:39 GMT
इधर कुछ दिनों से एक अप्लीकेशन दौड़ रहा था फेसबुक पर 'सराहाह' नाम से। मैंने भी मज़ाक-मज़ाक में डाउनलोड कर लिया था। एक आश्चर्यजनक बात हुई थी मेरे बहुत सारे दोस्तों ने पोस्ट पर ही लिख कर बताया - असित भाई यह सेफ नहीं है। कुछ प्रशासनिक अधिकारी मित्रों के फोन भी आए - असित भाई तुरंत अनस्टाॅल कीजिए उसे, वो सुरक्षित नहीं है। बहुत अच्छा लगता है कि इतने सारे रिश्ते हैं जिनकी आगोश में हूँ मैं।
लेकिन अपने उन सभी दोस्तों से माफ़ी के साथ एक सवाल पूछने की इज़ाज़त चाहता हूँ। मेरा सवाल बस इतना सा है कि हम सुरक्षित कहाँ हैं? 
रागिनी दुबे को देखा है आपने! नहीं? कोई बात नहीं। अपने घर-परिवार, आसपास की किसी भी लड़की को रागिनी मान लीजिए। बलिया जिले में भी एक रागिनी थी कुछ दिनों पहले। बेहद प्यारी सी, इंटरमीडिएट की स्टुडेंट... हफ्ते भर पहले बीच सड़क पर उसी के गाँव के ग्राम प्रधान कृपाशंकर तिवारी के पुत्र प्रिंस तिवारी उर्फ़ कट्टर हिंदू ने गला काट कर हत्या कर दी। वो लड़की तो सराहाह पर नहीं थी! कैसे मर गई वो? 
यह पोस्ट लिखते समय तक गोरखपुर के अस्पताल में भर्ती तीस से अधिक बच्चों की मौत हो गई आॅक्सीजन की कमी के कारण। कमबख्तों ने इतनी सी उमर में सराहाह डाउनलोड कर लिया था क्या? कैसे मर गए वो? 
          दरअसल यह सवाल ही वह लक्ष्मण रेखा है जिससे थोड़ा सा उधर हुए तो देशद्रोही कहला सकते हैं और इधर हुए तो स्वस्थ लोकतंत्र की स्थापना होगी। 
रागिनी की इस परिणति के लिए जितना जिम्मेदार वो प्रिंस नाम का उन्नीस वर्षीय नरपिशाच है उससे कहीं ज्यादा दोषी आज की राजनीति है। कृपाशंकर तिवारी के भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी के नेताओं से मधुर संबंध हैं जिसकी बदौलत वो कल न्यायालय में पुलिस की सुरक्षा को अंगूठा दिखा कर हँसते हुए आत्मसमर्पण कर गया। मुझे इतनी सी बात जाननी है ग्राम प्रधान से लेकर केन्द्रीय मंत्री तक से कि राजनीति का वह कौन सा सूराख है जिससे आप निश्चिंत हैं कि हमारा कुछ नहीं बिगड़ने वाला और आप मुस्कुराते हुए आत्मसमर्पण करते हैं... हाथ हिलाते हुए, टाटा, बाय - बाय करते हुए न्यायाधीश के सामने प्रस्तुत होते हैं। एक ग्राम प्रधान की औकात इतनी ही होती है कि मनरेगा की जाँच करवा दीजिये उसके खाते सीज़ हो जाएँगे। लेकिन कृपाशंकर तिवारी की उस मुस्कुराहट के पीछे राजनीति के कौन से राक्षस खड़े हैं और उनकी जाँच कैसे और कौन करेगा? 
               गोरखपुर के एक अस्पताल में भर्ती जापानी बुखार से पीड़ित तीस से अधिक बच्चे आॅक्सीजन की सप्लाई बाधित होने से मर जाते हैं और माननीय मुख्यमंत्री जी का गृह क्षेत्र मासूम लाशों पर अट्टहास कर रहा है। क्या आॅक्सीजन की सप्लाई बंद करने वाले हाथ इतनी सी बात नहीं जानते थे कि इसका परिणाम क्या होगा? अगर कंपनी का पैसा बकाया था तो लगातार पत्र व्यवहार के बाद भी सिस्टम की वो कौन सी नींद है जो नहीं टूट रही थी? 
मैं भारतीय जनता पार्टी का एक मतदाता होने की हैसियत से क्या अपने मुख्यमंत्री से निवेदन कर सकता हूँ कि आप तत्काल त्यागपत्र दीजिए? 
क्या मैं देशद्रोही करार दिए जाने से पहले भारतीय न्याय व्यवस्था व प्रशासन तंत्र की आँखों में आँखे डालकर यह कह सकता हूँ कि यह 'सरकारी नरसंहार' है और दोषी सभी व्यक्तियों और संस्थाओं पर नरसंहार का ही मुकदमा दर्ज होना चाहिए? 
                मेरे जनपद के वरिष्ठ साहित्यकार हैं रामजी तिवारी। ऐसी घटनाओं पर जब भी मैं व्यथित होता था तो उन पर गुस्सा निकालने लगता था। वो समझते थे मुझे। और स्थिरता से समझाते भी थे - देखो असित लोकतंत्र का विकल्प है एक बेहतर लोकतंत्र। 
आज फिर मन कर रहा है कि उनसे पूछूँ कि सर - हम मायावती के लोकतंत्र से ऊब कर अखिलेश का लोकतंत्र लाए उनके लोकतंत्र से बेहतर भारतीय जनता पार्टी का लोकतंत्र लेकर आ गए लेकिन बदला क्या? नहीं मैं साफ़ साफ़ कहूँगा कि अब लोकतंत्र का विकल्प बेहतर लोकतंत्र नहीं है। सत्तर साल से हम बेहतर लोकतंत्र की आस लिए मरने के कागार पर आ गए हैं। हमें अब यह सोचना होगा कि किसी भी राजनीतिक पार्टी से पहले देश है, देश की आम जनता है, जो राजनीति के इन रक्तबीजों को अपने रक्त पिला कर पोस रही है और हम किसी भी राजनीतिक दल के लिए बस एक वोटर हैं और कुछ भी नहीं। 
सराहाह के डाउनलोड से बड़ा खतरा है इन नेताओं को देश से बड़ा समझ लेना। जैसे हम इनके लिए बस एक वोटर हैं वैसे ही हमें भी इन्हें मात्र एक नेता या सत्ताधारी पार्टी समझना होगा और हर उस मौत का हिसाब माँगना होगा जो उनकी लचर कार्यप्रणाली के द्वारा हुई हैं.... याद रखिएगा एक रागिनी आपके घर भी होगी और कुछ मासूम बच्चे आपके घर भी होंगे। 

श्रद्धांजलि इस व्यवस्था को.. 
असित कुमार मिश्र 
बलिया

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